Thursday, January 28, 2010

कर्मयोगी डॉ. इदिंरा अग्रवाल

नि:शक्तजन की सेवा के लिये समर्पित था उनका पूरा जीवन

प्रख्यात कवियत्री, साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं समाजसेवी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का जन्म 27 सितम्बर 1939 को बनारस में हुआ था। उनके पिता श्री चन्द्रशेखर लाल जोधपुर एवं उदयपुर में कार्यरत रहे। शिक्षा पूरी होने पर वे जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय में गणित विषय की प्रोफेसर बनीं। उनके विद्वतापूर्ण व्याख्यान विद्यार्थियों को घण्टों बांधे रखते थे किंतु उन्हें शिक्षिका से अधिक साहित्यकार एवं कवियत्री के रूप में तथा उससे भी बढ़कर समाज सेविका के रूप में पहचान मिली। उनका विवाह जोधपुर निवासी श्री सुधीर अग्रवाल के साथ हुआ। पति की प्रेरणा से वे समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हुईं। समाज सेवी होने के उपरांत भी अपनी दोनों पुत्रियों को इंजीनियर बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा।

उन्होंने 25 वर्षों तक जोधपुर में नि:शक्तजनों के कल्याण के लिये बड़ी संख्या में सहायता शिविरों का आयोजन करवाया। वे विकलांग पुनर्वास एवं प्रशिक्षण संस्थान जोधपुर की महासचिव भी रहीं। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नि:शक्त विद्यार्थियों को पुस्तकें उपलब्ध करवाने से लेकर समाज के किसी भी वर्ग के नि:शक्त व्यक्ति के लिये उनकी मौन सेवा हर समय उपलब्ध रहती थी। दिव्य लोक विकलांग विद्यालय हो या प्रज्ञा निकेतन छात्रावास, हर दिन हर पल डॉ. इंदिरा अग्रवाल इन संस्थाओं में रहने वाले विकलांग छात्रों की छोटी से छोटी समस्या को सुलझाने में व्यस्त एवं तत्पर रहती थीं।

सेवा उनकी जिन्दगी का जुनून था। उन्होंने लॉयन्स क्लब की सदस्यता भी ग्रहण की तथा इसके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के कमजोर व्यक्तियों के लिये सेवा के कार्य किये। उन्हें किसी भी संस्था में न तो पद की आकांक्षा थी और न यश अर्जित करने की। वे प्रचार से भी कोसों दूर रहीं। पुरस्कृत होने की बजाय वे पुरस्कृत करने में विश्वास रखती थीं। वे मीठी बोली को जीवन की सबसे बड़ी निधि समझती थीं। गांधी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित, सादगी की प्रतिमूर्ति और सहज संतोषी। ज्ञान का भार उन्हें दूसरों के सामने विनम्र बनाये रखता था। सांसारिक अहंकार से वे पूरी तरह दूर थीं। समृद्ध परिवार से होने के उपरांत भी आप बहुत ही साधारण रहन–सहन में रहती थीं।

नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिये परीक्षाओं में लेखक उपलब्ध करवाना एक बड़ी समस्या होती है। डॉ. इंदिरा अग्रवाल प्रज्ञा निकेतन में रहने वाले नेत्रहीन विद्यार्थियों को परीक्षा में लेखक उपलब्ध करवाने के लिये घर–घर जातीं तथा 10वीं से 12वीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को समझाईश करके अपने साथ लातीं। ऐसा करके उन्हें परम संतोष का अनुभव होता था।

ऐसे युवा जिन्होंने बी. एड. तथा पीएच. डी. तक की शिक्षा पूरी करके व्याख्याता और स्कूल शिक्षक की नौकरी प्राप्त कर ली, उनके लिये दुल्हन ढूंढना हो या उनके विवाह की शहनाई बजवानी हो, डॉ. इंदिरा अग्रवाल सदैव आगे रहकर इन कामों को सफलतापूर्वक पूरा करती थीं। उनके जीवन का हर पल मानव सेवा को समर्पित था। इसका प्रमाण यह है कि 5 जून 2008 को प्रात: ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि 3 जून की शाम 5 बजे से रात्रि 9 बजे तक वे प्रज्ञा निकेतन छात्रावास में एक कार्यक्रम का संचालन कर रही थीं। 29 मई 2007 को उन्होंने नेत्रहीन शिक्षक श्री मूलाराम का विवाह अस्थि विकलांग गोपी के साथ अपने हाथों से सम्पन्न करवाया। इस विवाह को करवाने में उन्होंने दुल्हन को अपने हाथों से सजाया और इस विवाह को करवाकर दुल्हा–दुल्हन को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास से बिलाड़ा के लिये रवाना किया। 4 जून 2008 तक प्रज्ञा निकेतन छात्रावास की कोषाध्यक्ष होने के नाते आने–पाई का हिसाब लिखकर बही में दर्ज किया। हिसाब लिखने में वे इतनी स्पष्ट थीं कि उनके निधन के बाद भी उसमें कोई भी प्रवेश नहीं करना पड़ा। बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

सहज, सरल, मंद–मंद मुस्कराती हुई वे सेवा प्रेमियों को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास का निरीक्षण करवातीं तो कभी दिव्य लोक का। कभी किसी को उलाहना नहीं देतीं। हर कार्यक्रम का संचालन सहज–सरल भाषा में करतीं। गलती करने वालों को तुरंत टोकतीं। अनुशासनहीनता उन्हें स्वीकार नहीं थी। ममतामय व्यवहार से हर नि:शक्त का हौंसला बढ़ातीं। दिव्य लोक के नन्हें विद्यार्थी हाें या प्रज्ञा निकेतन के बड़ी आयु के छात्र, ममतामयी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का स्नेह और दुलार सबको मिलता। कोई भी समस्या हो उसके समाधान के लिये आधी रात को चल पड़तीं। उनकी स्मृतियां आज भी दिव्य लोक विद्यालय एवं प्रज्ञा निकेतन छात्रावास के कण–कण में आज भी बसी हैं।

भारतीय नारी की वर्तमान स्थिति से वे संतुष्ट नहीं थीं। उनका मानना था कि कुछ करने की दिशा में हमारा नारी जगत अभी भी सोया हुआ ही कहलायेगा। विपन्न वर्ग की महिला फिर भी क्रियाशील है। किसान की पत्नी खेती बाड़ी का काफी काम अपने कंधों पर उठाये है। कुम्हार की बेटी अपने पिता को उसके काम में पूरा सहयोग देती है। तरस आता है अपने समाज के ढांचे पर जब सम्पन्न घरों की करीब 90 प्रतिशत महिलाओं को अकर्मण्यता का शिकार पाते हैं। सम्पन्न घर, वर और दो बच्चे मिल जायें बस नारी ने इसी को जीवन की चरम उपलब्धि मान लिया है। सम्पन्न वर्ग की महिला में शिक्षा का एकदम अभाव भी नहीं है। उनका अंतर्मन विचारों से भरपूर है किंतु उन विचारों को वह स्वयं ही कूलर की ठण्डी हवाओं में थपकी दे–दे कर सुलाती रहती है और जि का ठण्डा पानी पी–पी कर बालकनी में खड़ी रहकर किसी का इंतजार करती रहती है। समय पर घर न लौट कर आने वाले से सौ–सौ सवाल तो वो करती है किंतु खेद! वो अपने मन से कभी एक बार भी यह प्रश्न नहीं पूछती कि तुमने इंतजार करने जैसे निरर्थक काम में इतना समय क्यों गंवाया? तुम इस समय का उपयोग भी तो कर सकती थीं। जो हर दिन घण्टों इंतजार में बिताती है निश्चय ही उसके पास समय का तो अभाव है नहीं। अच्छे संस्कार भी हैं उसके पास तभी तो वह किसी के प्रति इतनी समर्पित हो जाती है कि घण्टों उसका इंतजार करती है। साक्षरता भी है उसमें फिर क्या ही अच्छा हो कि अपने निरर्थक गुजरते समय को वो किसी विषय विशेष के चिंतन में तथा लेखन में लगा दे। कोई ये तो न कहे कि हिन्दुस्तान में महिला लेखिकाओं की बहुत कमी है। क्या ही अच्छा हो कि आज की शिक्षित नारी अपनी कलम में स्याही भर ले। कागज और कलम को जीवन के एकांत क्षणों का साथी बना ले। उनका मानना था कि अनुशासन हर स्तर पर होना चाहिये, व्यक्ति विशेष के लिये उसके मापदण्ड नहीं बदले जायें।

सम्पर्क – श्री सुधीर अग्रवाल 5 ओल्ड पार्क, राई का बाग, गौशाला मैदान की गली, जोधपुर
दूरभाष – 93147 10534

Wednesday, January 27, 2010

कर्मयोगी श्रीमती आशा बोथरा

विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के साथ काम किया है उन्होंने
श्रीमती आशा बोथरा की माताजी स्वर्गीय श्रीमती छगन बहन गोलेच्छा को राजस्थान की प्रथम महिला सरपंच होने का गौरव प्राप्त था। वे नशाबंदी आंदोलन की जुझारू सामाजिक कार्यक थीं। श्रीमती आशा के पिता श्री त्रिलोकचंद गोलेच्छा सुप्रसिद्ध सर्वोदयी चितंक एवं मनीषी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन गौसेवा एवं खादी के प्रचार में लगाया। ऐसे सुप्रसिद्ध समाजसेवी परिवार में आशा का जन्म 26 सितम्बर 1952 को जोधपुर जिले के खींचन गांव में हुआ। आशा ने प्रसिद्ध गांधी विचारक एवं सर्वोदयी नेता श्री सिद्धराज ढड्ढा के निर्देशन में वर्ष 1955 से 1957 तक खीमेल में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। वर्ष 1967 से 1971 तक उन्हेांने श्री विनोबा भावे के मार्गदर्शन में तरुण शांति सेना में सक्रिय छात्रा के रूप में वर्धा, सिमोगा (कर्नाटक), खड़कपुर (पश्चिमी बंगाल), वाराणासी (उत्तर प्रदेश) एवं जोधपुर में आयोजित विभिन्न रचनात्मक शिविरों में भागीदारी निभाई। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से बी. ए. तथा एम. ए. (समाजशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशियल वर्क मुम्बई से एम. एस. डब्लू. तथा लखनऊ से प्राकृतिक चिकित्सा में डिप्लोमा किया। उन्होंने बाल शिक्षा समिति राजलदेसर से बाल शिक्षा में डिप्लोमा प्राप्त किया। आशा के पति श्री नगेन्द्र बोथरा भी बहु पठित व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने भी विवाह के बाद भी श्रीमती आशा के साथ समाज सेवा के काम में सहर्ष सहभागिता निभाई।

श्रीमती आशा ने मध्यप्रदेश के चम्बल के बीहड़ों में डॉ. एस. एन. सुब्बाराव तथा श्री नारायण भाई देसाई के नेतृत्व में आयोजित शांति शिविरों में भाग लिया तथा श्री जयप्रकाश नारायण के समक्ष दस्युओं द्वारा किये गये आत्मसमर्पण अभियान में श्रीमती आशा ने सामाजिक कार्यकत्र्ता के रूप में काम किया। जब आत्मसमर्पण के पश्चात् दस्युराज तहसीलदारसिंह, लक्ष्मणसिंह आदि ने जोधपुर की यात्रा की तो श्रीमती आशा ने विभिन्न भेंटवार्ताओं एवं गोष्ठियों के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1975 में वे प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में की गयी सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की सक्रिय सदस्य रहीं। श्रीमती आशा ने पश्चिमी बंगाल के कोलाघाट एवं मेदिनापुर जिलों के ग्रामीण अंचल में महिलाओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के सम्बन्ध में आक्स फॉम नामक संस्था द्वारा आयोजित सामाजिक कानूनी उपचार में सक्रिय सहभागिता निभाई तथा आत्महत्याओं के कारणों एवं निदान पर शोध कार्य किया। श्री जयप्रकाश नारायण ने नक्सलवादियों को प्रेम, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर लाने के लिये एक योजना बनायी। इस योजना के अंतर्गत श्रीमती आशा बोथरा, शुभमूर्ति, श्री रमण, उर्मिला मराठे के दलों ने बिहार के पूर्णिया जिले में युवा संघर्ष वाहिनी के सौजन्य से प्रेरणा शिविरों का आयोजन करके नक्सलपंथियों को शांति व अहिंसा के मार्ग का दर्शन दिया।

श्रीमती आशा ने वर्ष 1977–78 के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में पटना में रहकर सम्पूर्ण क्रांति अभियान में ग्रामीण अंचल में सघन जनसम्पर्क अभियान चलाया तथा विभिन्न जन समस्याओं के समाधान के लिये कार्य किया। बिहार के चम्पारन जिले में चीनी मिलों के श्रमिकों की हड़ताल के दौरान सर्वोदयी नेता श्री इंदुभाई की मांग पर श्री जयप्रकाश नारायण ने आशाजी को एक समाज वैज्ञानिक के रूप में विवाद का शांति पूर्ण समाधान करने के लिये भेजा। 1988 में पुन: जोधपुर लौटकर वे मीरा संस्थान की सचिव बनीं तथा महिला एवं बाल विकास हित विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय हुईं।

1985 से अब तक उनका राजस्थान में नशाबंदी आंदोलन, सम्पूर्ण साक्षरता अभियान, अकाल पीडि़ताें के पुनर्वास एवं सहायता कार्यक्रम, महिला के उत्पीड़न एवं शोषण के विरुद्ध जन जागरण अभियान, जीव दया से सम्बन्धित विविध गतिविधियों के आयोजन, धार्मिक सद्भावना तथा कौमी एकता के कार्यक्रमों द्वारा शांति का वातावरण बनाने में सक्रिय योगदान रहा है। जोधपुर में मीरा संस्थान के साथ–साथ उनका देशव्यापी कई प्रतिष्ठित संस्थााअें से सीधा जुड़ाव रहा है। वर्ष 1993 से 99 तक वे राष्ट्रीय शासकीय परिषद, गांधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित गांधी मार्ग के सम्पादक मण्डल की सदस्या रहीं। वर्ष 2003 से 2005 तक वे बालनिकेतन शिक्षण संस्थान जोधपुर की सचिव रहीं। सुचेता कृपलानी शिक्षा निकेतन माणकलाव की स्थापना के शुरुआती दिनों में उन्होंने इस संस्था को विशेष योगदान दिया।

वर्तमान में वे कुरजां संरक्षण एवं संवद्र्धन संस्थान खींचन की अध्यक्ष हैं तथा श्रमिक विद्यापीठ रेजीडेंसी रोड जोधपुर से भी सम्बद्ध हैं। वे राजस्थान राज्य स्काउट गाइड संघ जोधपुर, नवज्योति मनोविकास केन्द्र जोधपुर, मरुधर गौसेवा समिति जोधपुर, जैसलमेर जिला खादी परिषद, श्रीलादूराम अगरचंद गोलेच्छा महाविद्यालय खींचन तथा मरुविज्ञान संस्थान आदि संस्थाओं की कार्यकारिणी सदस्य हैं। इनके अतिरिक्त वे शांति मंदिर बीठड़ी की सदस्य, राजस्थान गौ सेवा संघ कन्हैया गौशाला जोधपुर की सलाहकार समिति सदस्य, जिला साक्षरता समिति जोधपुर की कोरग्रुप मेम्बर, जिला महिला विकास अभिकरण जोधपुर की शासकीय परिषद की सदस्य, जिला पारिवारिक न्यायालय जोधपुर की सलाहकार परिषद की सदस्य हैं। जोधपुर जिला स्तर पर वे जिला महिला सहायता समिति, जिला महिला एवं बाल विकास की प्रबंधन समिति, जिला स्वास्थ्य समिति कामकाजी महिलाओं के यौन शोषण पर कार्यवाही समिति आदि समितियों की सदस्य हैं। श्रीमती आशा द्वारा रचित बाल कविताओं एवं गीतों का संग्रह ‘‘शिशु सौरभ’’ तथा सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के लिये लिखी गयी ‘‘मंजिल की ओर’’ प्रकाशित हुई हैं। वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सम सामयिक विषयों पर भी लेखन करती रहती हैं। उन्होंने परम्परागत राजस्थानी लोक गीतों में भी स्वर संयोजन किया है। विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण जैसे चिंतकों के साथ काम करने के दौरान हुए अनुभवों का स्मरण करते हुए वे कहती हैं कि प्रेम और शांति से ही आध्यात्मिक साधना हो सकती है। यह आदमी के चिंतन से आदमी के व्यवहार में आना चाहिये। उनका मानना है कि पति–पत्नी एक दूसरे के मजबूत साथी बनें, तभी महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। स्त्री पुरुष सहजीवन को सहनागरिकत्व द्वारा ही जेंडर समानता को बल दिया जा सकता है।

सम्पर्क– मीरा संस्थान, बक्तावरमलजी का बाग, जोधपुर
दूरभाष– 0291 2434166

Wednesday, January 20, 2010

कर्मयोगी श्री आनंद कुमार सिनावडि़या

श्रद्धालुओं को तीर्थ यात्राएं करवाने का पुण्य कमाया है उन्होंने

श्री आनंदकुमार सिनावडि़या 78 साल की उम्र में भी उतने ही सक्रिय हैं जितना कि कोई व्यक्ति अपनी युवावस्था में हो सकता है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, कलाकार, फिल्म निर्माता, राजनेता और सफल व्यवसायी रहे हैं। धुन के धनी आनंद कुमार ने सफलता के लिये ओछे हथकण्डों को नहीं अपनाया। अपना रास्ता स्वयं चुना और समाज को श्रेष्ठतम अवदान देने का प्रयास किया।श्री आनंद कुमार सिनावडि़या का जन्म 3 मार्च 1930 को जोधपुर में हुआ। उन्हाेंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की तथा मात्र 16 वर्ष की आयु में वर्ष 1946 से वे पिता श्री गोरधन सिनवाडि़या के साथ ठेकेदारी करने लगे। आजादी से पहले उन्हें सिंध क्षेत्र की यात्रा का भी अवसर मिला जो आजादी के बाद पाकिस्तान में चला गया। इस कार्य में आय तो अच्छी थी किंतु एक दिन उनका जी इस कार्य से उचाट हो गया। मामला था रिश्वत देने का। आनंद ने रिश्वत देकर अपना काम करवाने के स्थान पर काम छोड़ देना ही श्रेयस्कर समझा।


वर्ष 1957 से आनंद ने हिन्दू श्रद्धालुओं को तीर्थ स्थलों के दर्शन करवाने का व्यवसाय अपना लिया। इस व्यवसाय के कई लाभ थे। आजीविका के साथ धार्मिक स्थलों की यात्रा, तीर्थ यात्रियों की सेवा और देशाटन का आनंद, सभी कुछ इस व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। उन्होंने हिन्दू श्रद्धालुओं को चारों धाम– बद्रीनाथ, द्वारिकापुरी, जगन्नाथ पुरी तथा रामेश्वरम्, सप्तपुरी– कांची, काशी, माया (हरिद्वार), मथुरा, अयोध्या, अवंतिका (उज्जैन) तथा द्वादश ज्योतिर्लिंग, हैदराबाद से नेपाल तक की यात्राएं करवाईं तथा कई बार भारत भ्रमण के कार्यक्रम भी आयोजित किये। इसी बीच 1963 में उन्होंने नगर परिषद जोधपुर के वार्ड नम्बर 39 से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा तथा अपनी लोकप्रियता के बल पर विजयी रहे। 1965 में श्री आनंद ने अपने पिता के साथ मिलकर रातानाडा जोधपुर में श्रीयादे माता का मंदिर बनवाया। मंदिर में देवी विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा से पहले उन्होंने अपने माता–पिता के साथ उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा की।


सन 1945 में जब स्टेडियम मैदान में प्रदर्शनी लगी तो आनंद 15 साल के किशोर ही थे। इस प्रदर्शनी में उन्होंने बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया और स्टेडियम मैदान में वे महाराजा उम्मेदसिंह के साथ रहे। 1950 में उन्हें जोधपुर नरेश हनवंतसिंह से भी संक्षिप्त भेंट करने का अवसर मिला।


1966 एवं 1969 में आनंदकुमार ने राजस्थानी फिल्म निर्माण स्मारिका का प्रकाशन एवं संपादन किया। इससे उनकी प्रसिद्धि बुलंदियां छूने लगी। आनंदकुमार राजनीति में भी सक्रिय रहे। वे स्वतंत्र पार्टी के जिला अध्यक्ष भी बनाये गये। जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो आनंदकुमार उसके भी जिला संयुक्त सचिव बनाये गये।


भारत के पहले पहले आम चुनावों में जोधपुर नरेश हनवंतसिंह ने अपनी पूर्व रियासत मारवाड़ के निवासियों के नाम एक संदेश दिया था– ‘‘म्हैं थांसू दूर नहीं।’’ इस नारे के बल पर महाराजा उन आम चुनावों में लोक सभा एवं विधानसभा दोनों ही सीटों के लिये चुनाव जीत गये थे। इतना ही नहीं महाराजा द्वारा समर्थित 35 में से 31 प्रत्याशियों की चुनावी नैया पार लग गयी थी। दुर्भाग्य से चुनाव परिणाम घोषित होने से पूर्व ही महाराजा का एक वायुयान दुर्घटना में निधन हो गया। माना जाता है कि यदि महाराजा का निधन नहीं होता तो वे प्रदेश में बनने वाली पहली निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार होते।

जब 1971 के आम चुनाव हुए तो स्वर्गीय महाराजा हनवंतसिंह की पत्नी कृष्णाकुमारी ने चुनाव लड़ने का मन बनाया। इस पर आनंद कुमार ने दैनिक जलते दीप समाचार पत्र में पूरे एक पृष्ठ में अपना वक्तव्य प्रकाशित करवाया। इसे पढ़कर राजदादी बदनकंवर ने आनंदकुमार को राईकाबाग पैलेस बुलवाया तथा राजमाता कृष्णाकुमारी के चुनाव लड़ने के बारे में बातचीत की। राजदादी ने शंका भी व्यक्त की कि राजमाता तो पर्दे में रहती हैं। तब आनंदकुमार ने जवाब दिया कि संतान और माता के बीच कोई परदा नहीं होता है। इस पर राजदादी ने आनंदकुमार को राजमाता कृष्णा कुमारी तथा उनके पुत्र महाराजा गजसिंह से भी मिलवाया।

इस प्रकार जोधपुर के राजपरिवार से उनका सम्पर्क बन गया जो आगे भी जारी रहा।
वर्तमान में आनंदकुमार राजस्थान कला संगम संस्थान के अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय पुरबिया प्रजापति समाज संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई तथा वेस्टर्न इंडिया फिल्म प्रोड्यसर्स एसोसियेशन के सदस्य हैं तथा राजस्थानी फिल्म केसरिया बालम के निर्माण कार्य में व्यस्त हैं।

सम्पर्क – 51 बी, नृसिंह कॉलोनी, रातानाडा, जोधपुर।
दूरभाष –0291 2511919, 94604 25069

Tuesday, January 19, 2010

कर्मयोगी श्री अशोक कन्नौजिया

पश्चिमी राजस्थान के सबसे बड़े वेडिंग फोटोग्राफर की ख्याति प्राप्त है उन्हें

क्या कोई व्यक्ति टेलिविजन पर एक समाचार देखकर अपने भाग्य की लकीरों को बदल सकता है! क्या कोई एक समाचार आदमी को गुमनामी के अंधेरों से निकालकर राष्ट्रव्यापी ख्याति दिलवा सकता है! सुनने में अविश्वसनीय सी लगने वाली यह बात पूरी तरह सत्य सिद्ध करके दिखायी है जोधपुर के श्री अशोक कन्नौजिया ने। श्री अशोक कन्नौजिया का जन्म 12 सितम्बर 1970 को जोधपुर शहर में हुआ। उनके पिता श्री शिवचरण कन्नौजिया रेलवे में सेवा करते हैं। श्री अशोक कन्नौजिया की स्कूली शिक्षा जोधपुर में हुई। वर्ष 1989 में उन्होंने सोमानी कॉलेज से स्नातक उपाधि प्राप्त की।

वर्ष 1991 से वे फोटोग्राफी का कार्य करने लगे। वर्ष 1992 में जब वे 22 वर्ष के थे तब उन्होंने टेलिविजन पर दिल्ली के एक फोटो स्टूडियो का समाचार देखा जिसमें उस स्टूडियो के विजुअल्स भी दिखाये गये थे। इन विजुअल्स में उन्होंने स्टूडियो में फोटो खिंचवाने वालों को कतार लगाकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए देखा। उस समाचार को देखकर श्री अशोक कन्नौजिया ने उसी समय संकल्प किया कि एक दिन वे भी फोटोग्राफी में नाम कमायेंगे तथा ऐसा ही लोकप्रिय फोटो स्टूडियो जोधपुर में स्थापित करेंगे।

संकल्प एक छोटे से विचार के रूप में मन में जन्म अवश्य लेता है किंतु शीघ्र ही वह इतना बड़ा हो जाता है कि संकल्पकर्ता अपने समस्त कार्य छोड़कर उस संकल्प को पूरा करने के लिये उठ खड़ा होता है क्योंकि कोई भी सच्चा संकल्प, कुछ शब्दों में मन ही मन की गयी कोई प्रतिज्ञा मात्र नहीं होता। न ही बिना पंखों के ऊँचे गगन में उड़ने के मिथ्या स्वप्न जैसा होता है। सच्चा संकल्प तो आदमी का अपने आप आपको दिया गया एक वचन होता है। यही कारण है कि सच्चे संकल्प के साथ जुड़े हुए होते हैं प्रयासों के वे अनवरत सिलसले जो आदमी को इस योग्य बनाते हैं कि वह संकल्प को साकार करके दिखा सके। संकल्प आदमी की भूख, प्यास और निद्रा सबकुछ छीन लेते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ श्री अशोक कन्नौजिया के साथ।

श्री अशोक कन्नौजिया ने उसी वर्ष अर्थात् 1992 में मुम्बई जाकर मॉडलिंग फोटोग्राफी के विशेषज्ञ फोटोग्राफरों से इस कार्य का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। उस समय आज की तरह डिजीटल फोटोग्राफी का चलन नहीं था। परम्परागत कैमरों पर हाथ साफ करने के लिये कठोर साधना और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती थी। धुन के धनी अशोक ने कैमरों को अपना साथी बना लिया। वे अपना अधिकतम समय उन्हीं के साथ बिताने लगे। धीरे–धीरे उनकी फोटोग्राफी में वह चमक आ गयी जिसके बल पर वे उत्कृष्ट कहलाने की अपनी साध पूरी कर सकते थे। उनके पिता श्री शिवचरण कन्नौजिया तथा उनके पांच भाइयों ने भी श्री अशोक कन्नौजिया का पूरा साथ दिया और हर समय उनके मनोबल को ऊँचा बनाये रखा। इसी बीच उन्हें श्री शैलेन्द्र थानवी का साथ मिला जिन्होंने श्री अशोक कन्नौजिया को फोटोग्राफी के क्षेत्र में सफल होने के लिये अच्छे सुझाव दिये तथा प्रेरणा प्रदान की।

वर्ष 1996 में श्री कन्नौजिया ने अपने आप को पूरी तरह उत्कृष्ट फोटोग्राफी के लिये तैयार कर लिया तथा 25 अप्रेल 1996 को रातानाडा शिवमंदिर रोड पर जोधपुर में एक छोटा सा स्टूडियो स्थापित किया। वर्ष 1997–98 में उन्होंने जोधपुर में मॉडलिंग प्रपोजल फोटोग्राफी में पूरे राजस्थान में प्रसिद्धि प्राप्त की और अपने स्टूडियो के आगे ग्राहकों की कतार लगाकर अपना वह स्वप्न पूरा कर लिया जिसमें उन्होंने ऐसा फोटो स्टूडियो स्थापित करने का विचार संजोया था जिसमें फोटो खिंचवाने के लिये ग्राहकों की कतार लगे। अब उनकी ख्याति जोधपुर से बाहर निकलकर दूसरे शहरों में फैल गयी और वे पश्चिमी राजस्थान के प्रमुख फोटो ग्राफरों में गिने जाने लगे। छोटी पूंजी के साथ आरंभ किये गये इस व्यवसाय को उन्होंने इतने कम समय में बुलंदियों पर पहुंचाने में सफलता अर्जित की कि आज वे पूरी तरह से आधुनिक स्टूडियो के मालिक हैं।

वर्ष 2004 में उन्होंने सरदारपुरा में संजय स्टूडियो के नाम से भव्य एवं आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित स्टूडियो की स्थापना की। वर्ष 2005 में उन्होंने अपना कलर लैब स्थापित किया जिसमें वल्र्ड क्लास मशीन की स्थापना की। आज वे जोधपुर में वैडिंग फोटोग्राफी विशेषज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा भारत के गिने चुने वेडिंग फोटोग्राफरों में शुमार होते हैं। वे दिल्ली, मुंबई तथा देश के अन्य बड़े शहरों में भी वैडिंग फोटोग्राफी करने जाते हैं।

श्री अशोक कन्नौजिया की सफलता का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय से एम. बी. ए. करने वाले छात्र–छात्राएं हर वर्ष उनके स्टूडियो पर आकर उनकी व्यावसायिक सफलता के कारणों का अध्ययन करते हैं तथा उस पर प्रोजैक्ट तैयार करके अपनी वार्षिक परीक्षाओं में प्रस्तुत करते हैं।

फोटोग्राफी के व्यवसाय के साथ–साथ श्री अशोक कन्नौजिया समाज सेवा के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। भविष्य के लिये श्री अशोक कन्नौजिया की योजना है कि वे हिन्दी फिल्मों के निर्देशन के क्षेत्र में हाथ आजमायें। वे महेश भ तथा मधुर भण्डारकर की तरह ही इस लाइन में सफल होने की इच्छा रखते हैं। उन्होंने हिन्दी म्यूजिक एलबम ‘‘प्यार में’’ निर्देशित किया है जिसे अच्छी लोकप्रियता मिली। धुन के धनी श्री अशोक कन्नौजिया को इस क्षेत्र में सफलता के कई नये झण्डे गाढ़ने हैं।

सम्पर्क – 312, सैक्शन 7, न्यू पावर हाउस रोड, जोधपुर
दूरभाष – 94141 27682, 0291 5109390

Monday, January 18, 2010

कर्मयोगी श्रीमती अरुणा चौधरी

गाँवों को सेवा और साधना का तप:स्थल बनाया है उन्होंने


श्रीमती अरुणा चौधरी का जन्म ई। 1950 में जोधपुर में हुआ। उनके पिता श्री खेताराम गोदारा पंचायत समिति मण्डोर के प्रधान थे। श्रीमती अरुणा छात्र जीवन से ही प्रतिभाशाली रहीं। इसी के साथ वे छात्र नेतृत्व में भी सबसे आगे रहीं। इन्हीं गुणों के कारण वे राजमहल हायर सैकेण्डरी स्कूल जोधपुर की छात्र परिषद की अध्यक्ष रहीं। कॉलेज शिक्षा के दौरान वे बैडमिण्टन तथा वॉलीबॉल की राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी रहीं। उन्होंने तीन साल तक बेडमिण्टन की वेस्ट जोन प्रतियोगिताओं में जोधपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। श्रीमती अरुणा एन. सी. सी. की बेस्ट कैडेट रहीं तथा उन्होंने एन. सी. सी. के ‘ए’ एवं ‘बी’ सर्टिफिकिट के साथ–साथ एन. सी. सी. का बहुप्रतिष्ठित ‘सी’ सर्टिफिकेट भी प्राप्त किया। 1970 में उन्होंने जोधपुर विश्वविद्यालय से विज्ञान विषय में स्नातक उपाधि प्राप्त की।


शिक्षा पूरी करने के बाद अपने पिता की तरह श्रीमती अरुणा भी समाज सेवा के संकल्प के साथ सार्वजनिक जीवन में आयीं। उन्होंने रातानाडा जोधपुर के राजकीय अस्पताल में एक वार्ड के निर्माण हेतु 51 हजार रुपये का आर्थिक सहयोग प्रदान किया। मण्डोर पंचायत समिति में स्थित जाजीवाल कलां में एक प्याऊ का निर्माण करवाया तथा ठण्डे पानी की मशीन लगवायी। अरुणा के संवदेनशील मन को गहरा अवसाद लगा जब वर्ष 2003 में उनके पुत्र मनीष का निधन हो गया। विगत चार वर्षों से वे दिवंगत मनीष की स्मृति में जाट समाज के श्रेष्ठ विद्यार्थियों को प्रोत्साहन राशि एवं अनुदान देती हैं। इसके अतिरिक्त भारत के स्वतंत्रता दिवस समारोह पर प्रतिवर्ष वे ग्रामीण क्षेत्र में स्थित विभिन्न विद्यालयों में 5000 रुपये की छात्रवृत्तियां प्रदान करती हैं। अरुणा चौधरी ने देवलिया कलाँ विद्यालय में लायन्स क्लब गोल्डन जुबली सहयोग से 30 हजार रुपयों की लागत से विद्यालयोपयोगी सामग्री उपलब्ध करवायी।


श्रीमती अरुणा चौधरी ग्रामीण क्षेत्र में परिवार कल्याण, साक्षरता, पोषहार कार्यक्रमों के अंतर्गत शिविरों का आयोजन करवाती हैं। स्वरोजगार योजना के अंतर्गत सिलाई मशीनों का वितरण एवं सिलाई केन्द्र खुलवाने जैसे कार्य भी वे लगातार करती रहती हैं। जोधपुर जिले के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र में वे कई स्वास्थ्य एवं नेत्र चिकित्सा शिविरों का आयोजन करवा चुकी हैं जिनमें लेंस प्रत्यारोपण भी करवाया जाता है। विधवाओं, विकलांगों एवं वृद्धों को पेंशन दिलवाने के लिये भी वे सतत प्रयत्नशील रहती हैं। बच्चों को पोलियो की दवा तथा विटामिन ए की खुराक पिलवाने के लिये वे राष्ट्रीय अभियानों के दौरान घर–घर जाकर प्रचार करती हैं तथा रैलियों का आयोजन करवाती हैं। आयोडीन युक्त नमक के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये रैलियों का आयोजन, जाजीवाल कलां सीनियर हायर सैकेण्डरी स्कूल में गोष्ठी एवं प्रतियोगिता का आयोजन करवाया तथा छात्र–छात्राओं को पुरस्कार प्रदान किये। श्रीमती चौधरी 2008–09 सत्र की लॉयनेस प्रान्तीय कमेटी 323 ई 2 की अध्यक्ष हैं। राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के 24 क्लब्स का नेतृत्व कर रही हैं। वे लॉयन्स क्लब में भी पूरी तरह से सक्रिय हैं तथा सर्वश्रेष्ठ लॉयनेस का खिताब अर्जित कर चुकी हैं। कारगिल युद्ध के दौरान उन्होंने राजस्थान में सबसे अधिक 26 हजार रुपये के स्वेटर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दिल्ली जाकर भेंट किये। उड़ीसा के तूफान पीडि़त परिवारों को वसुंधरा संस्थान के सहयोग से मुख्यमंत्री को 21 बोरे 1000 रुपये के नये बर्तन, 2 बोरी पुराने बर्तन, 11 गांठें गर्म कपड़े एवं साडि़यां तथा बच्चों के कपड़े भेंट किये।


श्रीमती अरुणा ने वर्ष 1999 से 2007 तक जोधपुर ग्रामीण क्षेत्र में 256 नि:शुल्क नेत्र चिकित्सा शिविरों का आयोजन करवाकर लैंस प्रत्यारोपित करवाये तथा मुख्य चिकित्सा अधिकारी के सहयोग से ग्रामीण निर्धन रोगियों को नि:शुल्क दवाओं का वितरण करवाया। वे विगत छ: वर्षों से प्रतिवर्ष 25 से 30 यूनिट रक्त दान करवाती हैं। उन्होंने छ: माह की अवधि में 460 यूनिट रक्त दान करवाकर जोधपुर जिले में एक रिकॉर्ड कायम किया। क्यूटोन, रेडिमेड गारमेंट्स के सहयोग से श्रीमती अरुणा ने पंचायत समिति मण्डोर के ग्रामीण क्षेत्र बनाड़, जाजीवाल कलां तथा नादड़ा कला में 2 लाख के गर्म व सूती पैंट शर्ट, स्वेटर आदि कपड़े बंटवाये।


श्रीमती अरुणा ने लॉयन्स गोल्डन जुबली जोधपुर के सहयोग से लॉयनेस क्लब वेस्ट एवं सेण्ट्रल द्वारा बनाड़ स्थित राजकीय पाठशाला में 20 हजार, देवलियां की पाठशाला में 20 हजार, खोखरियां में 35 हजार रुपये की तथा सर्वशिक्षा अभियान के तहत केरू में 50–50 बालिकाओं को विद्यालय वेषभूषा, मोजे एवं छात्रोपयोगी सामग्री का वितरण करवाया। उन्होंने कृषक साथी योजना के अंतर्गत 7 मृतकों के आश्रित परिवारों एवं 3 अपाहिजों को रानी ग्रामीण क्षेत्र में कृषि सचिव से सहयोग दिलवाया। उन्होंने जोधपुर कृषि मण्डी में 5 मृतकों के परिवारों एवं 3 अपाहिजों को सूरसागर विधायक श्री मोहन मेघवाल से सहायता दिलवायी। जोधपुर के महात्मा गांधी अस्पताल में कार्यरत ब्लडबैंक को उन्होंने जोधपुर की महापौर डॉ। ओम कुमारी गहलोत से कम्प्यूटर प्रदान करवाया। रातानाडा, सारण नगर, फलौदी, जाजीवाल कलां तथा बनाड़ में उन्होंने महिला रोजगार हेतु सिलाई केन्द्र खुलवाये। उम्मेद अस्पताल के ब्लड बैंक में प्रिण्टर सहित कम्प्यूटर उपलब्ध करवाया।


श्रीमती अरुणा ने ग्रामीण क्षेत्र में पहली बार लर्निंग लाइसेंस शिविरों का आयोजन करवाया। इन शिविरों में राजस्थान सरकार के परिवहन विभाग द्वारा 350 लाइसेंस बनाये गये जिनसे राज्य सरकार को सवा लाख रुपये की आय हुई। परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के लिये श्रीमती अरुणा ने गांवों में विचार गोष्ठियों का आयोजन करवया ताकि महिलाओं में इस कार्यक्रम के प्रति जागृति उत्पन्न की जा सके। इन संगोष्ठियों में भाग लेनी वाली महिलाओं को प्रोत्साहन देने के लिये श्रीमती अरुणा ने उन्हें पुरस्कार भी दिये। इसी प्रकार कन्या भू्रण हत्या को रोकने के लिये भी उन्होंने व्यापक प्रचार–प्रसार कर जनजागृति उत्पन्न करने का अभियान चलाया। वे जोधपुर और उसके आसपास के ग्रामीण क्षेत्र में आज विकास की पर्याय बन गयी हैं।

सम्पर्क–आठवीं बी, पांचबत्ती कॉलोनी, रातानाडा जोधपुर दूरभाष–0291 2515153, 9461146113

Sunday, January 17, 2010

कर्मयोगी श्री अनिल अग्रवाल



औद्योगिक संगठनों को जन आंदोलन की शक्ति प्रदान करते हैं वे

पिता श्री योगेन्द्र कुमार गुप्ता एवं माता श्रीमती कमला देवी की पहली संतान के रूप में वर्ष 1959 में जोधपुर में श्रीअनिल अग्रवाल का जन्म हुआ। बचपन से ही किसी भी एक विषय पर प्रष्नों की बौछार लगा देने की आदत अनिलमें देखी गई। आदर्श विद्या मन्दिर विद्यालय जोधपुर से कक्षा अष्ठम संस्कारमयी वातावरण में उत्तीर्ण करने केपश्चात् उन्होंने सरदार स्कूल से वर्ष 1975 में हायर सैकेण्ड्री तक की परीक्षाएँ निरन्तर प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण कीं।में जोधपुर विष्वविद्यालय के न्यू कैम्पस के विज्ञान संकाय से स्नातक उपाधि भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करनेके पष्चात् उन्होंने कानून की पढ़ाई आरम्भ की किंतु एल.एल.बी. प्रथम वर्ष के पश्चात् दवा प्रतिनिधि के रूप मेंजयपुर में एक-डेढ़ वर्ष तक नौकरी करने के पश्चात् जोधपुर से प्रबन्धन स्नातकोत्तर उपाधि के लिए चयन हो गयातो उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र देकर 1982 में एम. बी. . की उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

राजस्थान प्रशासनिक सेवा में चयन हो जाने के पश्चात् भी उन्होंने नौकरी को तिलांजली देकर स्वयं का ही व्यापारअथवा लघु उद्योग स्थापित करने का निष्चय किया। उन्होंने सर्वप्रथम प्रदूषण नियन्त्रण के क्षेत्र में सलाहकार केरूप में एक सलाहकार फर्म की स्थापना की तथा एक वर्ष पश्चात् जोधपुर में कमला केमिकल नामक लघु उद्योग वर्षमें स्थापित करने का निर्णय लिया। लघु उद्योग का सफलता पूर्वक संचालन करते हुए श्री अनिल अग्रवाल नेबाल्यकाल में अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जुड़ाव को पुन: स्थापित किया तथा संघ द्वारा किये जाने वालेविभिन्न सामाजिक एवं सेवा कार्यों में स्वयं को निरन्तर संलग्न रखा। वर्ष 1996 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केविचारकों एवं चिंतकों की अवधारणा से लघु उद्योग भारती नामक एक राष्ट्रीय औद्योगिक संस्था की स्थापना हुईजिसमें श्री अनिल अग्रवाल को जोधपुर प्रान्त के संस्थापक महामंत्री का दायित्व सौंपा गया। : वर्षों तक महामंत्रीके दायित्व का सफलता पूर्वक निर्वहन करते हुए लघु उद्योग भारती को एक प्रमुख औद्योगिक संगठन के रूप मेंस्थापित करने में श्री अनिल अग्रवाल ने जोधपुर एवं राष्ट्रीय स्तर पर महती भूमिका निभाई।

इस कालखण्ड में लघु उद्योगों के लिए निवेश सीमा को बढ़वाने, लघु उद्योगों की उत्पाद शुल्क निकासी सीमा को एककरोड़ रूपये तक करवाने, उद्योगों को इंस्पेक्टर राज से मुक्ति दिलवाने के अभियान को एक राष्ट्रीय सोच का विषय बनाने, लघु उद्योगों को देष की आर्थिक मेरूदण्ड के रूप में पहचान दिलवाने, उद्योगों पर लगे ट्रांसपोर्ट सर्विस टेक्सको हटवाने के लिए स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर का जन आन्दोलन करवाने एवं लघु उद्योग भारती द्वारा माननीयसर्वोच्च न्यायालय में इस कर के विरोध में याचिका प्रस्तुत करने का निर्णय तय करवाने में उन्होंने महत्वपूर्णभूमिका का निर्वहन किया। रिजर्व बैंक द्वारा धारा 23एस के संशोधन को रद््द करवाने हेतु जन आन्दोलन खड़ाकरने में भी श्री अनिल अग्रवाल ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जिसमें जोधपुर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश के प्रत्येक नगर में सफल स्वस्फूर्त व्यापारिक एवं औद्योगिक बन्द के कार्यक्रम सम्पन्न करवाकर केन्द्रीय वित्तमंत्री जी को इस संषोधन को वापस लेने लिए सहमत किया गया।

इसी प्रकार टैक्सटाईल उद्योग पर लगे उत्पादन शुल्क को रद्द करवाने के आन्दोलन को सक्षम निर्णय तक पहुंचाने, जोधपुर के स्टेनलैस स्टील बर्तन उद्योग पर लगे केन्द्रीय उत्पाद शुल्क के निर्णय को निरस्त करवाने, तेल, ग्वार-गम, दाल, हैण्डीक्राफ्ट आदि अनेक उद्योगों की कर संरचना को तर्कसंगत बनवाने में महत्वपूर्ण योगदान देने, सम्पूर्ण देष में लकड़ी की आरा मषीनों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तुरन्त बन्द करने के निर्णय के विरोध में विषालजन आन्दोलन खड़ा करने तथा दो फुट तक की आरा मषीनों को लाईसेंस दिलवाने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करवाने, राजस्थान में बिलों के पीछे माल क्रय करने के पूर्ण विवरण को अंकित करने के सरकारी निर्णय को रद्दकरवाने हेतु जन आन्दोलन खड़ा करके निर्णय को रद्द करवाने, अपने हाथों से लोहे को पीट-पीटकर हस्त निर्मितलोह पर लगे वैट कर से मुक्ति दिलवाने सम्बन्धी आदि अनेक आन्दोलन श्री अनिल अग्रवाल ने सफलता पूर्वकसम्पन्न किये।

श्री अनिल अग्रवाल ने वर्ष 2004 से 2006 तक जोधपुर इण्डस्ट्रीज ऐसोसियेषन के सचिव के रूप में लगभग प्रतिदो दिनों में एक कार्यक्रम आयोजित करने का इतिहास रचा है। किसी भी औद्योगिक सामाजिक समस्या कोदृढ़तापूर्वक प्रश्नों की बौछार के साथ सफलतापूर्वक सकारात्मक निर्णय की स्थिति में ले जाने की एक असाधारणक्षमता श्री अनिल अग्रवाल में है।

लातूर का भूकम्प हो अथवा उत्तार-काशी की भूकम्प 1978 1984 लीला, बिहार की बाढ़ हो या उड़ीसा में बाढ़का प्रकोप, राजस्थान में अकाल की विभिषिका हो या फिर भुज के भूकम्प का भयानक दृश्य अथवा जोधपुर कीदु:खांतिका में शवों को व्यवस्थित रूप से परिजनों को सौंपने का दुष्कर कार्य, श्री अनिल अग्रवाल कभी भीयथायोग्य एवं यथासम्भव धन संग्रह, समय दान एवं श्रम दान से कभी पीछे नहीं हटे। जोधपुर के लाल मैदान परस्वदेषी मेले का आरम्भिक सफल आयोजन हो, रेल्वे के स्टेडियम में रामायण का विषाल मंचन हो, गांधी मैदान मेंविशाळ योग प्रशिक्षण शिविर का अयोजन हो, संत-महात्माओं के प्रवचन के कार्यक्रम हों, भारतीय नववर्ष केकार्यक्रम में जोधपुर के मुख्य प्रवेष द्वार, सोजती गेट को सजाकर नववर्ष का स्वागत करने का कार्यक्रम हो या फिरनववर्ष के शुभागामन पर सोजती गेट के चौराहे पर विभिन्न समाजों के प्रमुखों के सपत्नीक सामूहिक यज्ञ काआयोजन, श्री अनिल अग्रवाल विषेष रचनाओं के साथ अग्रण्ाी भूमिका में रहे हैं।

वर्तमान में वे भाजपा उद्योग एवं व्यापार प्रकोष्ठ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सदस्य तथा राष्ट्रीय औद्योगिक रुग्णतानिवारण समिति के राष्ट्रीय सह-संयोजक के रूप में राष्ट्रीय औद्योगिक परिदृश्य का अध्ययन एवं नई औद्योगिकनीति की रचना में जुटे हुए हैं। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती इन्दुबाला उनके कार्यों में पूरा सहायोग करती हैं। उनकेपरिवार का सम्पूर्ण परिवेश धर्मपरायण है जहाँ बच्चों को भारतीय संस्कृति एवं संस्कार अपनाने की शिक्षा दीजाती है जिससे वे आगे चलकर देश को अच्छे नागरिक दे सकें।

Thursday, January 14, 2010

कर्मयोगी डॉ. अंजु सुथार


बचपन से ही प्रतिभाशाली रही हैं वे

अंजुम तखल्लुस से पहचानी जाने वाली डॉ। अंजु सुथार का जन्म 1 फरवरी 1974 को नागौर जिले के जसवंतगढ़ गांव में हुआ। पिता श्री बजरंगलाल जांगिड़ के राजस्थान सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग में अधिकारी होने तथा उनका लगातार स्थानांतरण होते रहने के कारण डॉ. अंजु की विद्यालयी शिक्षा सुजानगढ़, डीडवाना, सरदार शहर, नावां, सांभरझील आदि स्थानों पर हुई। स्नातक एवं स्नातकोत्तर शिक्षा सोना देवी सेठिया कन्या महाविद्यालय सुजानगढ़ में हुई। प्रतिभाओं को अवसर की खोज नहीं होती, अपितु अवसर मिलते ही दृढ़ता के साथ वे स्वयं को प्रमाणित करती हैं। अंजु की नृत्य, गायन, खेलकूद में रुचि विद्यालयी शिक्षा के साथ–साथ उजागर होती चली गयी।

सन् 1987 में आठवीं कक्षा में अध्ययनरत अंजु ने जिला स्तरीय टेबल टेनिस में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी समय स्काउट गाइड में इनकी सक्रियता ने भविष्य में किये जाने समाजसेवा कार्यों का आधार भी चिह्नित कर दिया। वर्ष 1991 में सीनियर सैकेण्डरी परीक्षा के कला वर्ग में उन्होंने राजस्थान मैरिट में साठवां स्थान प्राप्त किया। इसके लिये उन्हें भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने छात्रवृत्ति प्रदान की। इसी परीक्षा में अंजु ने अपने विद्यालय में अंग्रेजी विषय में सर्वोच्च अंक भी प्राप्त किये।

महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय अजमेर द्वारा आयोजित वर्ष 1994 की स्नातक उपाधि परीक्षा में इन्होंने 26वां स्थान तथा वर्ष 1996 में इतिहास विषय से स्नातकोत्तर उपाधि परीक्षा में सातवां स्थान प्राप्त किया। स्नातक परीक्षा में अच्छे प्रदर्शन के लिये इन्हें भारत सरकार ने छात्रवृत्ति दी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सुजानगढ़ तथा शिक्षा एवं संस्कृति प्रचार केन्द्र सुजानगढ़ ने इन्हें नगर प्रतिभा के रूप में सम्मानित किया। महाविद्यालय जीवन में उनका प्रखर वक्ता के रूप में भी विकास हुआ। ‘‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’’ ये शब्द महाविद्यालय प्रशासन ने इनकी राज्य स्तरीय वाद विवाद प्रतियोगिता में प्रथम जीत पर व्यक्त किये। भाषण और वाद विवाद प्रतियोगिता में विजय और पुरस्कारों की श्रृंखला अनवरत जारी रही। अतएव महाविद्यालय द्वारा इन्हें सर्वोत्तम वक्ता के रूप में पुरस्कृत किया गया। वक्ता होने के साथ–साथ सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी की राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में भी इन्होंने पुरस्कार प्राप्त किये। नृत्य एवं गायन के बालपन में पड़े बीज अब पल्लवित होने लगे थे। संगीत विषय न होने के उपरांत भी वे नृत्य तथा गायन में महाविद्यालय स्तर पर प्रतिवर्ष पुरस्कार प्राप्त करती रहीं। वहीं इनकी खेल प्रतिभा भी अपने रंग प्रदर्शित कर रही थी। एथलेटिक्स की हर विधा में इन्होंने सफलता के साथ हाथ आजमाया। वहीं जब भी अवसर मिला बैडमिण्टन, वॉलीबॉल तथा टेबिल टेनिस में भी अपना हुनर प्रदर्शित किया। नेतृत्व क्षमता और हेलाएं में सघन रुचि ने सन् 1993 के छात्रसंघ चुनावों में इन्हें खेलमंत्री बना दिया। महाविद्यालय के समय में ही चित्रकला और कविता, कहानी लेखन में भी इनकी दक्षता परिलक्षित हुई। राष्ट्रीय सेवा योजना तथा योजना मंच के कर्मठ कार्यकत्र्ता के रूप में इनकी सेवाएं विशेष सरहानीय रहीं। उपयु‍र्क्त समस्त विशेषताओं और गुणों को परख कर ही सन् 1994 में इन्हें बेस्ट स्टूडेण्ट ओफ कॉलेज का खिताब मिला।

वर्ष 1997 में राज्य स्तरीय व्याख्याता पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वर्ष 2003 में वे राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाड़मेर में इतिहास की व्याख्याता नियुक्त हुईं। वर्ष 2004 में उन्होंने डॉक्टरेट उपाधि अर्जित की। वर्तमान में वे अध्ययन, शिक्षण, चिंतन तथा विश्लेषण के क्षेत्र में सक्रिय हैं जहाँ वे कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार, कार्यशाला व गोष्ठियों में भागीदारी निभा रही हैं। साथ ही शोधपत्रों और आलेखों के माध्यम से भी अपनी बात सामने रख रही हैं। वे कई अकादमिक संस्थाओं की सदस्य होने के साथ–साथ इन्फोसिस कम्पनी के व्यक्तित्व विकास कौशल कार्यक्रम की प्रशिक्षित सदस्या भी हैं जिसका उपयोग वे महाविद्यालय के छात्र–छात्राओं को प्रशिक्षित करने में करती हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय राजनीति के निर्माता भी प्रकाशित हुई है। उन्होंने ‘‘गांधीवादी अहिंसक निवारण संघर्ष’’ तथा आपदा प्रबंधन में प्रमाणपत्र एवं डिप्लोमा प्राप्त किया है।

डॉ। अंजु के लिये समाज सेवा का क्षेत्र प्रमुख कार्यक्षेत्र है। समाज के नारी मुक्ति के घिसे–पिटे नारों को उन्होंने नवीन दिशा देने का प्रण लिया और प्रथम आघात स्वयं के परम्परागत विवाह में पर्दा प्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद करके किया। अंजु अन्तर्राष्ट्रीय लॉयन्स क्लब से भी जुड़ीं जिसके निर्देशन में पर्यावरण संरक्षण, साक्षरता, महिला सशक्तिकरण, स्कूलों को गोद लेने की योजना, विद्यालयों में गणवेश वितरण, रक्त जांच शिविर, नेत्र जांच शिविर, एड्स के प्रति जागरूकता, स्वास्थ्य जागरूकता, साम्प्रदायिक सद्भाव, पल्स पोलियो कार्यक्रमों में भागीदारी, वाटिकाओं का सृजन, वृक्षारोपण इत्यादि कार्यक्रमों में सृजनशील कार्यकत्र्ता के रूप में कार्य कर रही हैं। वर्ष 2006 में बाड़मेर जिले में आयी विनाशकारी बाढ़ के समय उन्हाेंने राहत सामग्री जुटाने में विशेष योगदान दिया। केसरीसिंह बारहठ की इस उक्ति को कि जब भी मौका मिले प्रत्येक व्यक्ति को अपने समाज के लिये अवश्य समय निकालना चाहिये, डॉ. अंजु सुथार कई अर्थों में उचित मानती हैं। इसीलिये वे बाड़मेर में जांगिड़ ब्राण समाज की महिलाओं में विकासात्मक दक्षता विकसित करने का प्रयास राष्ट्रीय नेतृत्व के रूप में कर रही हैं। कविता तथा गजल लेखन इनके प्रमुख व्यसन हैं।

Tuesday, January 12, 2010

प्रस्तावना

समाज में हमारी उपादेयता इस बात से नहीं आंकी जा सकती कि हम कितना जिये या कितनी सम्पन्नता और कितने आराम के साथ जिये। न इस बात से आंकी जा सकती है कि हमने कितना धनार्जन किया, कितनी शक्ति एकत्रित की और कितना ज्ञान बटोरा। ये समस्त उपलब्धियाँ सामयिक हैं, मनुष्य के पुरुषार्थ अथवा भाग्य से प्रकट होती हैं और देहावसान के साथ ही विलुप्त हो जाती हैं। समाज में हमारी उपादेयता इस बात से आंकी जाती है कि हमने अपनी ऊर्जा, शक्ति, ज्ञान एवं संसाधनों का उपयोग व्यक्ति, समाज, राष्ट्र अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के हित में किस सीमा तक जाकर किया!

हमारी सामाजिक उपादेयता को नापने की कोई इकाई तो नहीं बनी किंतु हर व्यक्ति का आकलन तो होता ही है। यह आकलन दो स्तरों पर होता है। पहला आकलन वैयक्तिक स्तर पर होता है जिसमें हमारा अपना मन एक तुला की भांति कार्य करता है। यदि हम विवेकशील हैं और आत्ममुग्ध नहीं हैं, तो इस तुला का परीक्षण सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इस तुला द्वारा किये गये परीक्षण में यदि हम सफल होते हैं तो हमें अवर्चनीय आत्मतोष की प्राप्ति होती है और हमारी आत्मा का प्रकाश हमारे पूरे जीवन को दिव्य प्रकाश से आलोकित कर देता है। हमें आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है। हम और अधिक संकल्पबध्द होकर अपनी सामाजिक उपादेयता को सिध्द करने में जुट जाते हैं।

दूसरा आकलन सामाजिक स्तर पर होता है। यह तुला अत्यंत विशाल होती है। इसका परीक्षण भी जटिल होता है तथा अक्सर मनुष्य इस तुला के दोलन में अपना संतुलन खो बैठता है। आदमी कितना ही अच्छा क्यों न कर ले किंतु उसे सामाजिक आलोचनाओं की झंझा झेलनी ही पड़ती है जिससे मनुष्य विचलित हो जाता है और उसकी गति कुंद होने लगती है। बहुत कम लोग इस झंझा को झेलकर आगे बढ़ पाते हैं। कर्मयोगी राजस्थानी ऐसे व्यक्तियों की कहानियाँ हैं जो अपने मन में विराट भाव धारण करके, सामाजिक आलोचनाओं की अनदेखी करके, अपनी ऊर्जा, शक्ति, ज्ञान एवं संसाधनों का उपयोग व्यक्ति, समाज, राष्ट्र अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये समर्पित करके, समय की वेगवती धारा को बदलने में सक्षम सिध्द हुए हैं।
हमने कर्मयोगी राजस्थानी शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की जिसमें ये कहानियाँ समाहित थीं। इन कहानियों को हम इस ब्लॉग के माध्यम से अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं।

राजस्थान की धरती पर एक से एक अनूठे कर्मयोगी की कमी नहीं। उन सबको पुस्तक में स्थान दे पाना संभव नहीं था। जितना भी प्रयास हमसे हो सका, आपके समक्ष है। जिन महानुभावों ने अपना जीवन वृत्तांत हमें उपलब्ध करवाया, हम उनके आभारी हैं क्योंकि इनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे यशगान की किंचित भी आवश्यकता या अभिलाशा रही हो। हमारे अनुरोध पर उन्होंने इसलिये अपना जीवन वृत्तांत हमें उपलब्ध करवाना उचित समझा कि इन्हें पढ़कर और लोग भी समाज सेवा का महत्व समझें और इस कार्य के लिये आगे आयें ताकि यह परम्परा निरंतर चलती रहे।

- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
– श्रीमती मधुबाला गुप्ता