Thursday, January 28, 2010

कर्मयोगी डॉ. इदिंरा अग्रवाल

नि:शक्तजन की सेवा के लिये समर्पित था उनका पूरा जीवन

प्रख्यात कवियत्री, साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं समाजसेवी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का जन्म 27 सितम्बर 1939 को बनारस में हुआ था। उनके पिता श्री चन्द्रशेखर लाल जोधपुर एवं उदयपुर में कार्यरत रहे। शिक्षा पूरी होने पर वे जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय में गणित विषय की प्रोफेसर बनीं। उनके विद्वतापूर्ण व्याख्यान विद्यार्थियों को घण्टों बांधे रखते थे किंतु उन्हें शिक्षिका से अधिक साहित्यकार एवं कवियत्री के रूप में तथा उससे भी बढ़कर समाज सेविका के रूप में पहचान मिली। उनका विवाह जोधपुर निवासी श्री सुधीर अग्रवाल के साथ हुआ। पति की प्रेरणा से वे समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हुईं। समाज सेवी होने के उपरांत भी अपनी दोनों पुत्रियों को इंजीनियर बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा।

उन्होंने 25 वर्षों तक जोधपुर में नि:शक्तजनों के कल्याण के लिये बड़ी संख्या में सहायता शिविरों का आयोजन करवाया। वे विकलांग पुनर्वास एवं प्रशिक्षण संस्थान जोधपुर की महासचिव भी रहीं। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नि:शक्त विद्यार्थियों को पुस्तकें उपलब्ध करवाने से लेकर समाज के किसी भी वर्ग के नि:शक्त व्यक्ति के लिये उनकी मौन सेवा हर समय उपलब्ध रहती थी। दिव्य लोक विकलांग विद्यालय हो या प्रज्ञा निकेतन छात्रावास, हर दिन हर पल डॉ. इंदिरा अग्रवाल इन संस्थाओं में रहने वाले विकलांग छात्रों की छोटी से छोटी समस्या को सुलझाने में व्यस्त एवं तत्पर रहती थीं।

सेवा उनकी जिन्दगी का जुनून था। उन्होंने लॉयन्स क्लब की सदस्यता भी ग्रहण की तथा इसके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के कमजोर व्यक्तियों के लिये सेवा के कार्य किये। उन्हें किसी भी संस्था में न तो पद की आकांक्षा थी और न यश अर्जित करने की। वे प्रचार से भी कोसों दूर रहीं। पुरस्कृत होने की बजाय वे पुरस्कृत करने में विश्वास रखती थीं। वे मीठी बोली को जीवन की सबसे बड़ी निधि समझती थीं। गांधी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित, सादगी की प्रतिमूर्ति और सहज संतोषी। ज्ञान का भार उन्हें दूसरों के सामने विनम्र बनाये रखता था। सांसारिक अहंकार से वे पूरी तरह दूर थीं। समृद्ध परिवार से होने के उपरांत भी आप बहुत ही साधारण रहन–सहन में रहती थीं।

नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिये परीक्षाओं में लेखक उपलब्ध करवाना एक बड़ी समस्या होती है। डॉ. इंदिरा अग्रवाल प्रज्ञा निकेतन में रहने वाले नेत्रहीन विद्यार्थियों को परीक्षा में लेखक उपलब्ध करवाने के लिये घर–घर जातीं तथा 10वीं से 12वीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को समझाईश करके अपने साथ लातीं। ऐसा करके उन्हें परम संतोष का अनुभव होता था।

ऐसे युवा जिन्होंने बी. एड. तथा पीएच. डी. तक की शिक्षा पूरी करके व्याख्याता और स्कूल शिक्षक की नौकरी प्राप्त कर ली, उनके लिये दुल्हन ढूंढना हो या उनके विवाह की शहनाई बजवानी हो, डॉ. इंदिरा अग्रवाल सदैव आगे रहकर इन कामों को सफलतापूर्वक पूरा करती थीं। उनके जीवन का हर पल मानव सेवा को समर्पित था। इसका प्रमाण यह है कि 5 जून 2008 को प्रात: ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि 3 जून की शाम 5 बजे से रात्रि 9 बजे तक वे प्रज्ञा निकेतन छात्रावास में एक कार्यक्रम का संचालन कर रही थीं। 29 मई 2007 को उन्होंने नेत्रहीन शिक्षक श्री मूलाराम का विवाह अस्थि विकलांग गोपी के साथ अपने हाथों से सम्पन्न करवाया। इस विवाह को करवाने में उन्होंने दुल्हन को अपने हाथों से सजाया और इस विवाह को करवाकर दुल्हा–दुल्हन को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास से बिलाड़ा के लिये रवाना किया। 4 जून 2008 तक प्रज्ञा निकेतन छात्रावास की कोषाध्यक्ष होने के नाते आने–पाई का हिसाब लिखकर बही में दर्ज किया। हिसाब लिखने में वे इतनी स्पष्ट थीं कि उनके निधन के बाद भी उसमें कोई भी प्रवेश नहीं करना पड़ा। बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

सहज, सरल, मंद–मंद मुस्कराती हुई वे सेवा प्रेमियों को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास का निरीक्षण करवातीं तो कभी दिव्य लोक का। कभी किसी को उलाहना नहीं देतीं। हर कार्यक्रम का संचालन सहज–सरल भाषा में करतीं। गलती करने वालों को तुरंत टोकतीं। अनुशासनहीनता उन्हें स्वीकार नहीं थी। ममतामय व्यवहार से हर नि:शक्त का हौंसला बढ़ातीं। दिव्य लोक के नन्हें विद्यार्थी हाें या प्रज्ञा निकेतन के बड़ी आयु के छात्र, ममतामयी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का स्नेह और दुलार सबको मिलता। कोई भी समस्या हो उसके समाधान के लिये आधी रात को चल पड़तीं। उनकी स्मृतियां आज भी दिव्य लोक विद्यालय एवं प्रज्ञा निकेतन छात्रावास के कण–कण में आज भी बसी हैं।

भारतीय नारी की वर्तमान स्थिति से वे संतुष्ट नहीं थीं। उनका मानना था कि कुछ करने की दिशा में हमारा नारी जगत अभी भी सोया हुआ ही कहलायेगा। विपन्न वर्ग की महिला फिर भी क्रियाशील है। किसान की पत्नी खेती बाड़ी का काफी काम अपने कंधों पर उठाये है। कुम्हार की बेटी अपने पिता को उसके काम में पूरा सहयोग देती है। तरस आता है अपने समाज के ढांचे पर जब सम्पन्न घरों की करीब 90 प्रतिशत महिलाओं को अकर्मण्यता का शिकार पाते हैं। सम्पन्न घर, वर और दो बच्चे मिल जायें बस नारी ने इसी को जीवन की चरम उपलब्धि मान लिया है। सम्पन्न वर्ग की महिला में शिक्षा का एकदम अभाव भी नहीं है। उनका अंतर्मन विचारों से भरपूर है किंतु उन विचारों को वह स्वयं ही कूलर की ठण्डी हवाओं में थपकी दे–दे कर सुलाती रहती है और जि का ठण्डा पानी पी–पी कर बालकनी में खड़ी रहकर किसी का इंतजार करती रहती है। समय पर घर न लौट कर आने वाले से सौ–सौ सवाल तो वो करती है किंतु खेद! वो अपने मन से कभी एक बार भी यह प्रश्न नहीं पूछती कि तुमने इंतजार करने जैसे निरर्थक काम में इतना समय क्यों गंवाया? तुम इस समय का उपयोग भी तो कर सकती थीं। जो हर दिन घण्टों इंतजार में बिताती है निश्चय ही उसके पास समय का तो अभाव है नहीं। अच्छे संस्कार भी हैं उसके पास तभी तो वह किसी के प्रति इतनी समर्पित हो जाती है कि घण्टों उसका इंतजार करती है। साक्षरता भी है उसमें फिर क्या ही अच्छा हो कि अपने निरर्थक गुजरते समय को वो किसी विषय विशेष के चिंतन में तथा लेखन में लगा दे। कोई ये तो न कहे कि हिन्दुस्तान में महिला लेखिकाओं की बहुत कमी है। क्या ही अच्छा हो कि आज की शिक्षित नारी अपनी कलम में स्याही भर ले। कागज और कलम को जीवन के एकांत क्षणों का साथी बना ले। उनका मानना था कि अनुशासन हर स्तर पर होना चाहिये, व्यक्ति विशेष के लिये उसके मापदण्ड नहीं बदले जायें।

सम्पर्क – श्री सुधीर अग्रवाल 5 ओल्ड पार्क, राई का बाग, गौशाला मैदान की गली, जोधपुर
दूरभाष – 93147 10534

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