Monday, February 15, 2010

श्रीमती उषा गर्ग

सच्चाई की राह पर चलने वाला दूसरों को भी पार लगा देता है

उषा गर्ग का जन्म 14 मई 1961 को आगरा में हुआ। उनके पिता श्री सोहनलाल सेठ कानपुर के विक्रमादित्य सनातन धर्म कॉलेज में बी. एड. के विभागाध्यक्ष थे तथा माता श्रीमती प्रेम सेठ, आगरा के प्रतिष्ठित हैडर्ड स्कूल में शिक्षिका थीं। उषा अपने माता पिता की दूसरे नम्बर की संतान हैं। उनसे बड़ी एक बहिन है तथा दो छोटे भाई हैं।उषा की स्कूली शिक्षा कानपुर के विद्यामंदिर में हुई। स्कूली शिक्षा के दौरान ही उषा ने वाद–विवाद, फैंसी ड्रेस तथा खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेना आरंभ कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय कैडेट कोर तथा बुलबुल स्काउट के कई कैम्पों में भाग लिया। उन्होंने एन. सी. सी. एवं बुलबुल स्काउट में ‘‘बी’’ सर्टिफिकेट भी प्राप्त किये। उषा की कॉलेज शिक्षा कानपुर के आचार्य नरेन्द्र देव महिला महाविद्यालय से हुई जहाँ से उन्होंने संस्कृत भाषा में स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित की। कॉलेज में रहते हुए वे आॅल इण्डिया क्रिकेट इण्टर यूनिवर्सिटी में फस्र्ट इलेवन में खेली। वॉलीबॉल, हैण्ड बॉल, थ्रो बॉल आदि खेलों में उषा ने नेशलन अवार्ड प्राप्त किये। इनके अतिरिक्त डिस्क थ्रो, कबड्डी आदि खेलों में भी उन्होंने कई पुरस्कार अर्जित किये। 1982 में उनका विवाह जोधपुर के प्रतिष्ठित अग्रवाल परिवार में हुआ। उनके पति श्री विमल स्वरूप गर्ग स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एण्ड जयपुर में कैशियर के पद पर कार्यरत हैं। विवाह के बाद अपने श्वसुर श्री चम्पालाल गर्ग, अपनी सास श्रीमती धनवंतरी देवी तथा जेठ–जेठानी के सहयोग एवं प्रेरणा से उषा ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया तथा समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन्होंने महिलाओं को स्वरोजगार दिलवाने के लिये नि:शुल्क प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये। इन कार्यक्रमों से कई महिलाआें ने स्वरोजगार स्थापित करने का प्रशिक्षण लेकर अपने रोजगार स्थापित किये और स्वावलम्बी बनीं। 1993 में उन्होंने घर में ही एक लघु उद्योग समानी हर्बल्स नामक एजेन्सी स्थापित की तथा विभिन्न उत्पाद बनाने आरंभ किये। उन्होंने 15 महिला सदस्यों को लेकर ‘‘एनीटाइम हैल्प सर्विस’’ नामक संस्था की स्थापना की। यह संस्था किसी भी महिला द्वारा सम्पर्क किये जाने पर उसे सहायता उपलब्ध करवाती थी।1994 में उषा ने लॉयन्स क्लब इण्टरनेशनल की सदस्यता ग्रहण की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट सेवाएं प्रदान कीं। वे लॉयन्स क्लब इण्टरनेशनल की अध्यक्ष, क्षेत्रीय अध्यक्ष, संभागीय अध्यक्ष भी रहीं। इस संस्था के कैबीनेट एवं मल्टीपल स्तर पर शिक्षा, चिकित्सा, वृद्धावस्था सहायता, राष्ट्रीय पल्स पोलियो कार्यक्रम, नारी सशक्तिकरण, विकलांग सहायता, महिला रोजगार, बाल विवाह उन्मूलन, दहेज प्रथा उन्मूलन आदि क्षेत्रों में विशिष्ट सेवाएं प्रदान कीं। वर्ष 2008 में हुए मेहरानगढ़ दुर्ग हादसे की सूचना मिलने पर उषा गर्ग अपनी सहयोगी समाज सेविकाओं के साथ एक घण्टे के भीतर मथुरा दास माथुर हॉस्पीटल एवं महात्मा गांधी हॉस्पीटल पहुंच गयीं। तथा अपनी टीम के साथ मिलकर, घायल लोगों की सेवा सुश्रुषा में संलग्न हो गयीं। घायलों एवं उनके परिवारों के सदस्यों के लिये भोजन एवं पानी की व्यस्था का जिम्मा भी उषा एवं उनकी टीम ने अपने ऊपर ले लिया। मेहरानगढ़ हादसे में मृत व्यक्तियों के आश्रित परिवारों को रोजगार उपलब्ध करवाने में भी उषा एवं उनकी टीम पूरा सहयोग कर रही है।बालिकाओं एवं युवतियों को प्रोत्साहित करने तथा उनके व्यक्तित्व विकास के लिये भी उषा ने काफी काम किया। उन्होंने लायन्स क्लब इण्टरनेशनल के माध्यम से जोधपुर में स्थित श्रमिक विद्यापीठ, महिला पोलिटेक्निक, कमला नेहरू कॉलेज, इंजीनियरिंग गल्र्स हॉस्टल, महिला महाविद्यालय सहित कई महाविद्यालयों एवं विद्यालयों में व्यक्तित्व विकास तथा चिकित्सा से सम्बन्धित सेमीनार, विचार गोष्ठियां आदि कार्यक्रम आयोजित करवाये।समर्पण भाव से सेवा करने के लिये उषा को समाज की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया। वर्ष 2006–07 में पूरे लॉयनेस डिस्ट्रिक्ट में उन्हें बेस्ट आॅफ द बेस्ट सर्वश्रेष्ठ अध्यक्षा का अवार्ड दिया गया। वर्ष 2007–08 में उन्हें रीजन में सर्वश्रेष्ठ अध्यक्षा का अवार्ड मिला। इसी तरह अग्रवाल समाज, माहेश्वरी समाज, जैन समाज द्वारा भी उन्हें समय–समय पर सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया। राजस्थान दिवस के अवसर पर भी उन्हें सम्मानित किया गया। वर्तमान में श्रीमती उषा गर्ग लायन्स क्लब की डायरेक्टर तथा सखी सहेली संगठन की अध्यक्ष हैं। उन्हें समाज सेवा के कार्य में अपने पूरे परिवार और मित्र मण्डली का भरपूर सहयोग मिलता है।

Monday, February 8, 2010

कर्मयोगी उमा कंवर

सादा जीवन उच्च विचार को जीवन का मूल मंत्र बनाया है उन्होंने

श्रीमती उमा कंवर का जन्म 21 मार्च 1961 को गुजरात के राजगढ़ (लेहरा) में रहने वाले परम्परागत राजपूत परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम श्री अमरसिंह सोलंकी था। परम्परागत राजपूत परिवारों में उन दिनों लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था फिर भी उमा कंवर सौभाग्यशाली थीं कि उन्होंने आठवीं कक्षा तक की औपचारिक शिक्षा स्कूल में जाकर प्राप्त की। उन्हें पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव था। उन्होंने महापुरुषों एवं राष्ट्रीय नेताओं की जीवनियों का अध्ययन किया। उन्हें महात्मा गांधी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, श्री लालबहादुर शास्त्री तथा श्रीमती इंदिरा गांधी के जीवन चरित्र ने विशेष रूप से प्रभावित किया। महान राष्ट्रीय नेताओं की जीवनियों को पढ़ने से श्रीमती उमा कंवर को राष्ट्रीयता की आवश्यकता एवं महत्ता का पता लगा और उन्हें अपने राष्ट्र से प्रेम करने तथा देश वासियों की सेवा करने की प्रेरणा मिली।श्रीमती उमा कंवर महात्मा गांधी की जीवनी से विशेष रूप से प्रभावित हुईं जिन्होंने देश को आजाद करवाने के लिये अपनी अच्छी खासी बैरिस्ट्री का त्याग कर दिया तथा जीवन के सारे सुख त्यागकर देश हित जेलों में रहना स्वीकार किया। गांधीजी ने निर्धनों, पिछड़ों और समाज के सबसे अंतिम छोर पर बैठे व्यक्तियों के उत्थान के लिये जो कार्यक्रम चलाये, उन्होंने भी श्रीमती उमा को विशेष रूप से प्रभावित किया। सादा जीवन और उच्च विचार का दर्शन श्रीमती उमा को इतना भाया कि उन्होंने इस विचार को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया। महात्मा गांधी के बताये रास्ते पर चलने के संकल्प के साथ श्रीमती उमा अपने आसपास घटित होने वाली विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने लगीं। विकास संस्था के माध्यम से उन्होंने निर्धन विद्यालयी छात्रों को पुस्तकें, पोशाकें तथा सर्दियों में गरम कपड़े बांटने का काम हाथ में लिया। लक्ष्मी उद्योग के मालिक श्री भगवान सिंह परिहार एक उद्योगपति होते हुए भी जिस तरह समाज सेवा में सक्रिय रहते हैं, उन्हें देखकर श्रीमती उमा कंवर को निर्धन बच्चों की सेवा करने की प्रेरणा मिली तथा नवजीवन संस्थान में अबोध बच्चों की मदद करना भी उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। वर्ष 1982 में उमा का विवाह श्री अमरसिंह सोलंकी से हुआ। श्री सोलंकी बैंक में हैडकैशियर के पद पर कार्य करते हैंं। उमा के विवाह के बाद श्वसुर गृह में उनकी सास श्रीमती विद्या कंवर एवं ससुर श्री लालसिंह सोलंकी का निधन हो गया। इस पर श्रीमती उमा ने अपने देवरों एवं नंदों को अपने बच्चों की तरह पाला एवं पढ़ाया तथा उनके विवाह की जिम्मेदारी भी श्रीमती उमा ने अपने पति के सहयोग से बहुत अच्छी तरह से निभाई। पारिवारिक दायितवों के निर्वहन के साथ–साथ जरूरतमंदों को हॉस्पीटल में खाना पहुंचाना, कम्बल बांटना, किसी को सर्दी में ठिठुरते देखकर अपना शॉल उसे दे देना उनकी आदत में सम्मिलित रहा है। सेवा करके उन्हें असीम प्रसन्नता प्राप्त होती है। शांत स्वभाव की उमा कंवर के खुश मिजाज स्वभाव से घर व मौहल्ले में सदैव रौनक बनी रहती है। उनका मानना है कि व्यर्थ की बातों में समय खराब करने के स्थान पर मनुष्य को अपनी ऊर्जा उचित कामों और दूसरों की भलाई में लगानी चाहिये। श्रीमती उमा का अधिकांश समय लवकुश नेत्रहीन विद्यालय में बच्चों की सेवा करने में निकलता है। आप लॉयनेस क्लब के माध्यम से भी समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वर्ष 2008 में वे लॉयनेस क्लब की कोषाध्यक्ष बनीं तथा सूर्यनगरी क्लब की भी शोभा बढ़ाई। सखी सहेली संगठन तथा कांग्रेस में भी वे पूरी तरह सक्रिय हैं। वर्तमान में वे जोधपुर महिला कांगे्रस में वार्ड संख्या चार की उपाध्यक्ष हैं। उनका प्रयास रहता है कि जिस किसी भी संगठन के लिये वे कार्य करें उनके समूह अथवा टीम में एकता बनी रहे। उनका विश्वास है कि सब लोगों की सम्मिलित ऊर्जा एक साथ लगने से कार्य के परिणाम शीघ्र एवं काफी अच्छे प्राप्त होते हैं। औपचारिक शिक्षा भले ही श्रीमती उमा कंवर ने कम प्राप्त की किंतु जीवन जीने की कला कोई उनसे सीखे। वे कुकिंग, रंगोली और मेहंदी कलाओं में इतनी निपुण हैं कि देखने वाले दंग रह जायें। इन कलाओं के कारण उनकी लोकप्रियता का ग्राफ सदैव ऊंचा ही रहता है। आपके विनम्र, स्नेहशील एवं सेवाभावी स्वभाव को ससुराल में तथा हर स्थान पर प्रशंसा प्राप्त हुई। श्रीमती उमा तथा श्री अमरसिंह दम्पत्ति के दो पुत्र तथा एक पुत्री हैं। बड़ा पुत्र हेमंत एच. बी. कम्पनी में कार्यरत है। पुत्री ममता स्तातक (कला) की विद्यार्थी है तथा छोटा पुत्र देवेन्द्र अभी दसवीं कक्षा का विद्यार्थी है।श्रीमती उमा का मानना है कि ‘‘सिम्पल लिविंग और हाई थिंकिंग’’ का विचार आदमी के अपने हिसाब से तय होना चाहिये। उसके लिये कोई कृत्रिम मानदण्ड निर्धारित नहीं किये जा सकते। यदि कृत्रिम रूप से ऐसा किया गया तो उसका परिणाम बाह्य आडम्बर के रूप में प्राप्त होगा। आदमी के मन में पवित्रता का भाव उदित नहीं होगा। उनका यह भी मानना है कि यदि हम अपने आपको हर समय परिवार, समाज तथा देश की खुशहाली और समृद्धि के कार्यों में लगाये रखेंगे तो हम कभी भी नकारात्मकता की ओर नहीं मुड़ेंगे। आम आदमी के जीवन में सरसता बढ़ाने के अवसरों को भी वे हाथ से नहीं जाने देतीं। वे मंदिरों में पूजा, डाण्डिया एवं महोत्सव आदि आयोजनों में भी उत्साह से योगदान देती हैं। आज के इस चमक–दमक भरे संसार में जहाँ लोग रंग रोगन के सहारे सड़ा–गला माल भी ताजा और अच्छा दिखाने की जुगत में रहते हैं, वहीं श्रीमती उमा को झूठ, दिखावे और धोखे से सख्त नफरत है। वे अपने सम्पर्क में आने वाले बच्चों को सदैव यही समझाती हैं कि थोड़ा करो किंतु अच्छा करो। यह तभी संभव है जब मनुष्य का मन सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांत पर चलने को तैयार हो।

Monday, February 1, 2010

कर्मयोगी श्रीमती उमराव जैन

महिला शिक्षा को नये अर्थ दिये हैं उन्होंने

उमराव जैन का जन्म 28 सितम्बर 1953 को जोधपुर में हुआ। वे 17 वर्ष की भी नहीं हुई थीं कि उनका विवाह हो गया। उस समय तक उमराव ने हायर सैकण्डरी की परीक्षा दी थी, रिजल्ट नहीं आया था। उमराव के पिता मुनीम का काम करते थे। पति भी यही करते थे। विवाह के अगले वर्ष बेटे तरुण का जन्म हुआ और उसके तीन वर्ष बाद बेटी लतिका का। बेटी तीन साल की हुई तो उमराव ने बीच में छूट गये पढ़ाई के क्रम को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। पति श्री घीसूलाल जैन तथा सास श्रीमती भूरी देवी ने उमराव का हौंसला बढ़ाया। वर्ष 1979 में श्रीमती उमराव ने जोधपुर विश्वविद्यालय से बी.ए. आॅनर्स में पूरे हिस्ट्री विभाग को टॉप किया। 1981 में उन्होंने एंशीएण्ट हिस्ट्री में प्रथम श्रेणी में एम. ए. की तथा हिस्ट्री डिपार्टमेण्ट में दूसरी रैंक हासिल की।

वर्ष 1982 में उनकी नियुक्ति राजकीय महाविद्यालय झालावाड़ में इतिहास के व्याख्याता पद पर हुई। 1986 तक उन्होंने सुबोध कॉलेज जयपुर, सनातन धर्म कॉलेज ब्यावर, जैसलमेर और नागौर में भी अध्यापन कार्य किया किंतु 1987 में हृदय रोग से गंभीर रूप से पीडि़त हो जाने के कारण उन्हें शिक्षण कार्य छोड़ना पड़ा। 1992 में उन्होंने हृदय की शल्य चिकित्सा करवाई। स्वस्थ होने के बाद एक बार फिर उन्होंने अपना जीवन शिक्षा को समर्पित करने का निर्णय लिया। 1994 में राजस्थान सरकार ने उन्हें लोक जुम्बिश परियोजना के तहत जालोर में खुले पहले महिला शिक्षण विहार में प्रिंसीपल के पद पर नियुक्त किया। इस संस्था में निर्धन परिवारों की 15 से 35 साल आयु की बेसहारा, विधवा अथवा परित्यक्ता महिलाओं को तीन वर्ष की अल्प अवधि में आठवीं तक की शिक्षा प्रदान कर, उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास एवं उन्हें स्वावलम्बी बनाने की परिकल्पना संजोयी गयी थी।

महिलाआsं तथा उनकी गोद के बच्चों के रहने तथा खाने की व्यवस्था महिला शिक्षण विहार में ही की गयी। दिन भर की पढ़ाई तथा अन्य गतिविधियों के साथ–साथ रात्रि सत्र का भी प्रावधान रखा गया जिसमें दिन भर के कामों की समीक्षा, आने वाले दिन में किये जाने वाले कामों का आवंटन, प्रार्थना, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय–अंतर्राष्ट्रीय समाचारों की समीक्षा आदि कार्य किये जाते थे। रात्रि सत्र के दौरान समाज में व्याप्त कुरीतियों पर विस्तार से चर्चा की जाती थी।

श्रीमती उमराव जैन तथा उनकी सहकर्मी शिक्षिकाओं ने दिन रात परिश्रम करके, ग्रामीण एवं अशिक्षित परिवेश से आयी महिलाओं के व्यक्तित्व एवं चिंतन में आमूल चूल परिर्वतन ला दिया। कक्षा शिक्षण के साथ–साथ समूह चर्चाओं, परिचर्चाओं, पुस्तकालय गतिविधियाें, गीत–संगीत एवं शैक्षिक भ्रमणों के माध्यम से महिलाओं के व्यक्तित्व विकास के प्रयास किये गये। विहार में रहने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य एवं उनकी स्वास्थ्य शिक्षा पर पूरा ध्यान दिया गया। उन्हें एक्यूप्रेशर, ध्यान, योग आदि का प्रशिक्षण दिलवाया गया। विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा नियमित रूप से महिलाओं के स्वास्थ्य की जांच करवाकर उनका उपचार करवाया गया। उनके रक्त में हीमोग्लोबिन को मानक स्तर पर लाने के लिये दवायें दी गयीं। इससे महिलाओं का स्वास्थ्य भी तेजी से अच्छा होने लगा। जब शरीर और मन दोनों स्वस्थ होने लगे तो पढ़ाई समझने में आना मुश्किल काम नहीं रह गया। पढ़ाये जाने वाले प्रत्येक विषय के मूल्यांकन के लिये मासिक परीक्षाओं का प्रावधान रखा गया। जिला मुख्यालय पर कार्यरत डाइट तथा जिला शिक्षा अधिकारी (प्रारंभिक) के द्वारा महिलाओं की आठवीं कक्षा की परीक्षा आयोजित करवायी जाने लगीं। पहला बैच 40 लड़कियों का था जिसने मार्च 1995 में पढ़ाई आरंभ की थी। 1995–96 से लेकर वर्ष 2003–04 तक आठवीं बोर्ड की परीक्षा में विहार का परीक्षा परिणाम सामान्यत: सौ प्रतिशत रहा।

इन उपलब्धियों के लिये श्रीमती उमराव जैन तथा उनकी सहकर्मी शिक्षिकाओं को कई बार जिला स्तर पर पुरस्कृत किया गया। इस अद्भुत संस्था को देखने के लिये आने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों में राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल श्री अंशुमानसिंह, राज्य सरकार के कई मंत्री, स्वीडन की इन्टरनेशनल डिवलपमेंट ऐजेंसी की सर्वेक्षण शाखा के प्रमुख डॉ. शैल निस्ट्रॉम, इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर वी. एन. रेड्डी, आई. आई. एम. सी के प्रोफेसर एस. के. घोष, प्रख्यात शिक्षाविद एवं रमन मैगसेसे से पुरस्कृत अनिल बोर्डिया, द हिन्दू की विशेष संवाददाता सोमा बासु तथा यूनिसेफ के कई बड़े अधिकारी सम्मिलित हैं। राजस्थान की तत्कालीन राज्यपाल श्रीमती प्रतिभा पाटिल तो इस संस्था से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने राज्य सरकार से आग्रह किया कि इस तरह की संस्थायें पूरे राज्य में खोली जायें। इस विहार से पढ़–लिख कर निकली हुई महिलाएं समाज की विभिन्न संस्थाओं में जिम्मेदारी पूर्वक कार्य कर रही हैं। उनमें जीवन जीने का हौंसला है। समाज में उन्होंने सम्मानजनक स्थिति प्राप्त कर ली है। विहार से पढ़ी हुई अधिकांश महिलाएं सर्वशिक्षा अभियान के तहत सरकारी नौकरी हासिल करने में सफल रही हैं।

उमराव जैन आज भी हृदय की गंभीर बीमारी से जूझ रही हैं। उम्र बढ़ने के साथ उन्हें थॉयराइड की बीमारी भी रहने लगी है किंतु उनके हौंसले पस्त नहीं हुए हैंं। बेटा तरुण कोरिया, ताइवान और चीन जैसे तेजी से आगे बढ़ते ऐशियाई देशों से आयात निर्यात का व्यापार करता है और उमराव आज भी दुनिया की चमक से दूर पश्चिमी राजस्थान के धोरों में स्थित जालोर जिले की बेसहारा, विधवा एवं परित्यक्ता बहिनों की सेवा में संलग्न हैं।

सम्पर्क– 130, श्याम नगर, गली नम्बर 3, देवनगर के सामने, पाल लिंक रोड, जोधपुर
दूरभाष – 0291 2753729, 94148 67521

Thursday, January 28, 2010

कर्मयोगी डॉ. इदिंरा अग्रवाल

नि:शक्तजन की सेवा के लिये समर्पित था उनका पूरा जीवन

प्रख्यात कवियत्री, साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं समाजसेवी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का जन्म 27 सितम्बर 1939 को बनारस में हुआ था। उनके पिता श्री चन्द्रशेखर लाल जोधपुर एवं उदयपुर में कार्यरत रहे। शिक्षा पूरी होने पर वे जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय में गणित विषय की प्रोफेसर बनीं। उनके विद्वतापूर्ण व्याख्यान विद्यार्थियों को घण्टों बांधे रखते थे किंतु उन्हें शिक्षिका से अधिक साहित्यकार एवं कवियत्री के रूप में तथा उससे भी बढ़कर समाज सेविका के रूप में पहचान मिली। उनका विवाह जोधपुर निवासी श्री सुधीर अग्रवाल के साथ हुआ। पति की प्रेरणा से वे समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हुईं। समाज सेवी होने के उपरांत भी अपनी दोनों पुत्रियों को इंजीनियर बनाने में उनका बड़ा योगदान रहा।

उन्होंने 25 वर्षों तक जोधपुर में नि:शक्तजनों के कल्याण के लिये बड़ी संख्या में सहायता शिविरों का आयोजन करवाया। वे विकलांग पुनर्वास एवं प्रशिक्षण संस्थान जोधपुर की महासचिव भी रहीं। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले नि:शक्त विद्यार्थियों को पुस्तकें उपलब्ध करवाने से लेकर समाज के किसी भी वर्ग के नि:शक्त व्यक्ति के लिये उनकी मौन सेवा हर समय उपलब्ध रहती थी। दिव्य लोक विकलांग विद्यालय हो या प्रज्ञा निकेतन छात्रावास, हर दिन हर पल डॉ. इंदिरा अग्रवाल इन संस्थाओं में रहने वाले विकलांग छात्रों की छोटी से छोटी समस्या को सुलझाने में व्यस्त एवं तत्पर रहती थीं।

सेवा उनकी जिन्दगी का जुनून था। उन्होंने लॉयन्स क्लब की सदस्यता भी ग्रहण की तथा इसके माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के कमजोर व्यक्तियों के लिये सेवा के कार्य किये। उन्हें किसी भी संस्था में न तो पद की आकांक्षा थी और न यश अर्जित करने की। वे प्रचार से भी कोसों दूर रहीं। पुरस्कृत होने की बजाय वे पुरस्कृत करने में विश्वास रखती थीं। वे मीठी बोली को जीवन की सबसे बड़ी निधि समझती थीं। गांधी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित, सादगी की प्रतिमूर्ति और सहज संतोषी। ज्ञान का भार उन्हें दूसरों के सामने विनम्र बनाये रखता था। सांसारिक अहंकार से वे पूरी तरह दूर थीं। समृद्ध परिवार से होने के उपरांत भी आप बहुत ही साधारण रहन–सहन में रहती थीं।

नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिये परीक्षाओं में लेखक उपलब्ध करवाना एक बड़ी समस्या होती है। डॉ. इंदिरा अग्रवाल प्रज्ञा निकेतन में रहने वाले नेत्रहीन विद्यार्थियों को परीक्षा में लेखक उपलब्ध करवाने के लिये घर–घर जातीं तथा 10वीं से 12वीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को समझाईश करके अपने साथ लातीं। ऐसा करके उन्हें परम संतोष का अनुभव होता था।

ऐसे युवा जिन्होंने बी. एड. तथा पीएच. डी. तक की शिक्षा पूरी करके व्याख्याता और स्कूल शिक्षक की नौकरी प्राप्त कर ली, उनके लिये दुल्हन ढूंढना हो या उनके विवाह की शहनाई बजवानी हो, डॉ. इंदिरा अग्रवाल सदैव आगे रहकर इन कामों को सफलतापूर्वक पूरा करती थीं। उनके जीवन का हर पल मानव सेवा को समर्पित था। इसका प्रमाण यह है कि 5 जून 2008 को प्रात: ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि 3 जून की शाम 5 बजे से रात्रि 9 बजे तक वे प्रज्ञा निकेतन छात्रावास में एक कार्यक्रम का संचालन कर रही थीं। 29 मई 2007 को उन्होंने नेत्रहीन शिक्षक श्री मूलाराम का विवाह अस्थि विकलांग गोपी के साथ अपने हाथों से सम्पन्न करवाया। इस विवाह को करवाने में उन्होंने दुल्हन को अपने हाथों से सजाया और इस विवाह को करवाकर दुल्हा–दुल्हन को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास से बिलाड़ा के लिये रवाना किया। 4 जून 2008 तक प्रज्ञा निकेतन छात्रावास की कोषाध्यक्ष होने के नाते आने–पाई का हिसाब लिखकर बही में दर्ज किया। हिसाब लिखने में वे इतनी स्पष्ट थीं कि उनके निधन के बाद भी उसमें कोई भी प्रवेश नहीं करना पड़ा। बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

सहज, सरल, मंद–मंद मुस्कराती हुई वे सेवा प्रेमियों को प्रज्ञा निकेतन छात्रावास का निरीक्षण करवातीं तो कभी दिव्य लोक का। कभी किसी को उलाहना नहीं देतीं। हर कार्यक्रम का संचालन सहज–सरल भाषा में करतीं। गलती करने वालों को तुरंत टोकतीं। अनुशासनहीनता उन्हें स्वीकार नहीं थी। ममतामय व्यवहार से हर नि:शक्त का हौंसला बढ़ातीं। दिव्य लोक के नन्हें विद्यार्थी हाें या प्रज्ञा निकेतन के बड़ी आयु के छात्र, ममतामयी डॉ. इंदिरा अग्रवाल का स्नेह और दुलार सबको मिलता। कोई भी समस्या हो उसके समाधान के लिये आधी रात को चल पड़तीं। उनकी स्मृतियां आज भी दिव्य लोक विद्यालय एवं प्रज्ञा निकेतन छात्रावास के कण–कण में आज भी बसी हैं।

भारतीय नारी की वर्तमान स्थिति से वे संतुष्ट नहीं थीं। उनका मानना था कि कुछ करने की दिशा में हमारा नारी जगत अभी भी सोया हुआ ही कहलायेगा। विपन्न वर्ग की महिला फिर भी क्रियाशील है। किसान की पत्नी खेती बाड़ी का काफी काम अपने कंधों पर उठाये है। कुम्हार की बेटी अपने पिता को उसके काम में पूरा सहयोग देती है। तरस आता है अपने समाज के ढांचे पर जब सम्पन्न घरों की करीब 90 प्रतिशत महिलाओं को अकर्मण्यता का शिकार पाते हैं। सम्पन्न घर, वर और दो बच्चे मिल जायें बस नारी ने इसी को जीवन की चरम उपलब्धि मान लिया है। सम्पन्न वर्ग की महिला में शिक्षा का एकदम अभाव भी नहीं है। उनका अंतर्मन विचारों से भरपूर है किंतु उन विचारों को वह स्वयं ही कूलर की ठण्डी हवाओं में थपकी दे–दे कर सुलाती रहती है और जि का ठण्डा पानी पी–पी कर बालकनी में खड़ी रहकर किसी का इंतजार करती रहती है। समय पर घर न लौट कर आने वाले से सौ–सौ सवाल तो वो करती है किंतु खेद! वो अपने मन से कभी एक बार भी यह प्रश्न नहीं पूछती कि तुमने इंतजार करने जैसे निरर्थक काम में इतना समय क्यों गंवाया? तुम इस समय का उपयोग भी तो कर सकती थीं। जो हर दिन घण्टों इंतजार में बिताती है निश्चय ही उसके पास समय का तो अभाव है नहीं। अच्छे संस्कार भी हैं उसके पास तभी तो वह किसी के प्रति इतनी समर्पित हो जाती है कि घण्टों उसका इंतजार करती है। साक्षरता भी है उसमें फिर क्या ही अच्छा हो कि अपने निरर्थक गुजरते समय को वो किसी विषय विशेष के चिंतन में तथा लेखन में लगा दे। कोई ये तो न कहे कि हिन्दुस्तान में महिला लेखिकाओं की बहुत कमी है। क्या ही अच्छा हो कि आज की शिक्षित नारी अपनी कलम में स्याही भर ले। कागज और कलम को जीवन के एकांत क्षणों का साथी बना ले। उनका मानना था कि अनुशासन हर स्तर पर होना चाहिये, व्यक्ति विशेष के लिये उसके मापदण्ड नहीं बदले जायें।

सम्पर्क – श्री सुधीर अग्रवाल 5 ओल्ड पार्क, राई का बाग, गौशाला मैदान की गली, जोधपुर
दूरभाष – 93147 10534

Wednesday, January 27, 2010

कर्मयोगी श्रीमती आशा बोथरा

विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के साथ काम किया है उन्होंने
श्रीमती आशा बोथरा की माताजी स्वर्गीय श्रीमती छगन बहन गोलेच्छा को राजस्थान की प्रथम महिला सरपंच होने का गौरव प्राप्त था। वे नशाबंदी आंदोलन की जुझारू सामाजिक कार्यक थीं। श्रीमती आशा के पिता श्री त्रिलोकचंद गोलेच्छा सुप्रसिद्ध सर्वोदयी चितंक एवं मनीषी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन गौसेवा एवं खादी के प्रचार में लगाया। ऐसे सुप्रसिद्ध समाजसेवी परिवार में आशा का जन्म 26 सितम्बर 1952 को जोधपुर जिले के खींचन गांव में हुआ। आशा ने प्रसिद्ध गांधी विचारक एवं सर्वोदयी नेता श्री सिद्धराज ढड्ढा के निर्देशन में वर्ष 1955 से 1957 तक खीमेल में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। वर्ष 1967 से 1971 तक उन्हेांने श्री विनोबा भावे के मार्गदर्शन में तरुण शांति सेना में सक्रिय छात्रा के रूप में वर्धा, सिमोगा (कर्नाटक), खड़कपुर (पश्चिमी बंगाल), वाराणासी (उत्तर प्रदेश) एवं जोधपुर में आयोजित विभिन्न रचनात्मक शिविरों में भागीदारी निभाई। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से बी. ए. तथा एम. ए. (समाजशास्त्र) की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशियल वर्क मुम्बई से एम. एस. डब्लू. तथा लखनऊ से प्राकृतिक चिकित्सा में डिप्लोमा किया। उन्होंने बाल शिक्षा समिति राजलदेसर से बाल शिक्षा में डिप्लोमा प्राप्त किया। आशा के पति श्री नगेन्द्र बोथरा भी बहु पठित व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने भी विवाह के बाद भी श्रीमती आशा के साथ समाज सेवा के काम में सहर्ष सहभागिता निभाई।

श्रीमती आशा ने मध्यप्रदेश के चम्बल के बीहड़ों में डॉ. एस. एन. सुब्बाराव तथा श्री नारायण भाई देसाई के नेतृत्व में आयोजित शांति शिविरों में भाग लिया तथा श्री जयप्रकाश नारायण के समक्ष दस्युओं द्वारा किये गये आत्मसमर्पण अभियान में श्रीमती आशा ने सामाजिक कार्यकत्र्ता के रूप में काम किया। जब आत्मसमर्पण के पश्चात् दस्युराज तहसीलदारसिंह, लक्ष्मणसिंह आदि ने जोधपुर की यात्रा की तो श्रीमती आशा ने विभिन्न भेंटवार्ताओं एवं गोष्ठियों के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1975 में वे प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में की गयी सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की सक्रिय सदस्य रहीं। श्रीमती आशा ने पश्चिमी बंगाल के कोलाघाट एवं मेदिनापुर जिलों के ग्रामीण अंचल में महिलाओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के सम्बन्ध में आक्स फॉम नामक संस्था द्वारा आयोजित सामाजिक कानूनी उपचार में सक्रिय सहभागिता निभाई तथा आत्महत्याओं के कारणों एवं निदान पर शोध कार्य किया। श्री जयप्रकाश नारायण ने नक्सलवादियों को प्रेम, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर लाने के लिये एक योजना बनायी। इस योजना के अंतर्गत श्रीमती आशा बोथरा, शुभमूर्ति, श्री रमण, उर्मिला मराठे के दलों ने बिहार के पूर्णिया जिले में युवा संघर्ष वाहिनी के सौजन्य से प्रेरणा शिविरों का आयोजन करके नक्सलपंथियों को शांति व अहिंसा के मार्ग का दर्शन दिया।

श्रीमती आशा ने वर्ष 1977–78 के दौरान श्री जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में पटना में रहकर सम्पूर्ण क्रांति अभियान में ग्रामीण अंचल में सघन जनसम्पर्क अभियान चलाया तथा विभिन्न जन समस्याओं के समाधान के लिये कार्य किया। बिहार के चम्पारन जिले में चीनी मिलों के श्रमिकों की हड़ताल के दौरान सर्वोदयी नेता श्री इंदुभाई की मांग पर श्री जयप्रकाश नारायण ने आशाजी को एक समाज वैज्ञानिक के रूप में विवाद का शांति पूर्ण समाधान करने के लिये भेजा। 1988 में पुन: जोधपुर लौटकर वे मीरा संस्थान की सचिव बनीं तथा महिला एवं बाल विकास हित विभिन्न रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय हुईं।

1985 से अब तक उनका राजस्थान में नशाबंदी आंदोलन, सम्पूर्ण साक्षरता अभियान, अकाल पीडि़ताें के पुनर्वास एवं सहायता कार्यक्रम, महिला के उत्पीड़न एवं शोषण के विरुद्ध जन जागरण अभियान, जीव दया से सम्बन्धित विविध गतिविधियों के आयोजन, धार्मिक सद्भावना तथा कौमी एकता के कार्यक्रमों द्वारा शांति का वातावरण बनाने में सक्रिय योगदान रहा है। जोधपुर में मीरा संस्थान के साथ–साथ उनका देशव्यापी कई प्रतिष्ठित संस्थााअें से सीधा जुड़ाव रहा है। वर्ष 1993 से 99 तक वे राष्ट्रीय शासकीय परिषद, गांधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित गांधी मार्ग के सम्पादक मण्डल की सदस्या रहीं। वर्ष 2003 से 2005 तक वे बालनिकेतन शिक्षण संस्थान जोधपुर की सचिव रहीं। सुचेता कृपलानी शिक्षा निकेतन माणकलाव की स्थापना के शुरुआती दिनों में उन्होंने इस संस्था को विशेष योगदान दिया।

वर्तमान में वे कुरजां संरक्षण एवं संवद्र्धन संस्थान खींचन की अध्यक्ष हैं तथा श्रमिक विद्यापीठ रेजीडेंसी रोड जोधपुर से भी सम्बद्ध हैं। वे राजस्थान राज्य स्काउट गाइड संघ जोधपुर, नवज्योति मनोविकास केन्द्र जोधपुर, मरुधर गौसेवा समिति जोधपुर, जैसलमेर जिला खादी परिषद, श्रीलादूराम अगरचंद गोलेच्छा महाविद्यालय खींचन तथा मरुविज्ञान संस्थान आदि संस्थाओं की कार्यकारिणी सदस्य हैं। इनके अतिरिक्त वे शांति मंदिर बीठड़ी की सदस्य, राजस्थान गौ सेवा संघ कन्हैया गौशाला जोधपुर की सलाहकार समिति सदस्य, जिला साक्षरता समिति जोधपुर की कोरग्रुप मेम्बर, जिला महिला विकास अभिकरण जोधपुर की शासकीय परिषद की सदस्य, जिला पारिवारिक न्यायालय जोधपुर की सलाहकार परिषद की सदस्य हैं। जोधपुर जिला स्तर पर वे जिला महिला सहायता समिति, जिला महिला एवं बाल विकास की प्रबंधन समिति, जिला स्वास्थ्य समिति कामकाजी महिलाओं के यौन शोषण पर कार्यवाही समिति आदि समितियों की सदस्य हैं। श्रीमती आशा द्वारा रचित बाल कविताओं एवं गीतों का संग्रह ‘‘शिशु सौरभ’’ तथा सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के लिये लिखी गयी ‘‘मंजिल की ओर’’ प्रकाशित हुई हैं। वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सम सामयिक विषयों पर भी लेखन करती रहती हैं। उन्होंने परम्परागत राजस्थानी लोक गीतों में भी स्वर संयोजन किया है। विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण जैसे चिंतकों के साथ काम करने के दौरान हुए अनुभवों का स्मरण करते हुए वे कहती हैं कि प्रेम और शांति से ही आध्यात्मिक साधना हो सकती है। यह आदमी के चिंतन से आदमी के व्यवहार में आना चाहिये। उनका मानना है कि पति–पत्नी एक दूसरे के मजबूत साथी बनें, तभी महिला सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। स्त्री पुरुष सहजीवन को सहनागरिकत्व द्वारा ही जेंडर समानता को बल दिया जा सकता है।

सम्पर्क– मीरा संस्थान, बक्तावरमलजी का बाग, जोधपुर
दूरभाष– 0291 2434166

Wednesday, January 20, 2010

कर्मयोगी श्री आनंद कुमार सिनावडि़या

श्रद्धालुओं को तीर्थ यात्राएं करवाने का पुण्य कमाया है उन्होंने

श्री आनंदकुमार सिनावडि़या 78 साल की उम्र में भी उतने ही सक्रिय हैं जितना कि कोई व्यक्ति अपनी युवावस्था में हो सकता है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, कलाकार, फिल्म निर्माता, राजनेता और सफल व्यवसायी रहे हैं। धुन के धनी आनंद कुमार ने सफलता के लिये ओछे हथकण्डों को नहीं अपनाया। अपना रास्ता स्वयं चुना और समाज को श्रेष्ठतम अवदान देने का प्रयास किया।श्री आनंद कुमार सिनावडि़या का जन्म 3 मार्च 1930 को जोधपुर में हुआ। उन्हाेंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की तथा मात्र 16 वर्ष की आयु में वर्ष 1946 से वे पिता श्री गोरधन सिनवाडि़या के साथ ठेकेदारी करने लगे। आजादी से पहले उन्हें सिंध क्षेत्र की यात्रा का भी अवसर मिला जो आजादी के बाद पाकिस्तान में चला गया। इस कार्य में आय तो अच्छी थी किंतु एक दिन उनका जी इस कार्य से उचाट हो गया। मामला था रिश्वत देने का। आनंद ने रिश्वत देकर अपना काम करवाने के स्थान पर काम छोड़ देना ही श्रेयस्कर समझा।


वर्ष 1957 से आनंद ने हिन्दू श्रद्धालुओं को तीर्थ स्थलों के दर्शन करवाने का व्यवसाय अपना लिया। इस व्यवसाय के कई लाभ थे। आजीविका के साथ धार्मिक स्थलों की यात्रा, तीर्थ यात्रियों की सेवा और देशाटन का आनंद, सभी कुछ इस व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। उन्होंने हिन्दू श्रद्धालुओं को चारों धाम– बद्रीनाथ, द्वारिकापुरी, जगन्नाथ पुरी तथा रामेश्वरम्, सप्तपुरी– कांची, काशी, माया (हरिद्वार), मथुरा, अयोध्या, अवंतिका (उज्जैन) तथा द्वादश ज्योतिर्लिंग, हैदराबाद से नेपाल तक की यात्राएं करवाईं तथा कई बार भारत भ्रमण के कार्यक्रम भी आयोजित किये। इसी बीच 1963 में उन्होंने नगर परिषद जोधपुर के वार्ड नम्बर 39 से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा तथा अपनी लोकप्रियता के बल पर विजयी रहे। 1965 में श्री आनंद ने अपने पिता के साथ मिलकर रातानाडा जोधपुर में श्रीयादे माता का मंदिर बनवाया। मंदिर में देवी विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा से पहले उन्होंने अपने माता–पिता के साथ उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा की।


सन 1945 में जब स्टेडियम मैदान में प्रदर्शनी लगी तो आनंद 15 साल के किशोर ही थे। इस प्रदर्शनी में उन्होंने बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया और स्टेडियम मैदान में वे महाराजा उम्मेदसिंह के साथ रहे। 1950 में उन्हें जोधपुर नरेश हनवंतसिंह से भी संक्षिप्त भेंट करने का अवसर मिला।


1966 एवं 1969 में आनंदकुमार ने राजस्थानी फिल्म निर्माण स्मारिका का प्रकाशन एवं संपादन किया। इससे उनकी प्रसिद्धि बुलंदियां छूने लगी। आनंदकुमार राजनीति में भी सक्रिय रहे। वे स्वतंत्र पार्टी के जिला अध्यक्ष भी बनाये गये। जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो आनंदकुमार उसके भी जिला संयुक्त सचिव बनाये गये।


भारत के पहले पहले आम चुनावों में जोधपुर नरेश हनवंतसिंह ने अपनी पूर्व रियासत मारवाड़ के निवासियों के नाम एक संदेश दिया था– ‘‘म्हैं थांसू दूर नहीं।’’ इस नारे के बल पर महाराजा उन आम चुनावों में लोक सभा एवं विधानसभा दोनों ही सीटों के लिये चुनाव जीत गये थे। इतना ही नहीं महाराजा द्वारा समर्थित 35 में से 31 प्रत्याशियों की चुनावी नैया पार लग गयी थी। दुर्भाग्य से चुनाव परिणाम घोषित होने से पूर्व ही महाराजा का एक वायुयान दुर्घटना में निधन हो गया। माना जाता है कि यदि महाराजा का निधन नहीं होता तो वे प्रदेश में बनने वाली पहली निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार होते।

जब 1971 के आम चुनाव हुए तो स्वर्गीय महाराजा हनवंतसिंह की पत्नी कृष्णाकुमारी ने चुनाव लड़ने का मन बनाया। इस पर आनंद कुमार ने दैनिक जलते दीप समाचार पत्र में पूरे एक पृष्ठ में अपना वक्तव्य प्रकाशित करवाया। इसे पढ़कर राजदादी बदनकंवर ने आनंदकुमार को राईकाबाग पैलेस बुलवाया तथा राजमाता कृष्णाकुमारी के चुनाव लड़ने के बारे में बातचीत की। राजदादी ने शंका भी व्यक्त की कि राजमाता तो पर्दे में रहती हैं। तब आनंदकुमार ने जवाब दिया कि संतान और माता के बीच कोई परदा नहीं होता है। इस पर राजदादी ने आनंदकुमार को राजमाता कृष्णा कुमारी तथा उनके पुत्र महाराजा गजसिंह से भी मिलवाया।

इस प्रकार जोधपुर के राजपरिवार से उनका सम्पर्क बन गया जो आगे भी जारी रहा।
वर्तमान में आनंदकुमार राजस्थान कला संगम संस्थान के अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय पुरबिया प्रजापति समाज संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। फिल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई तथा वेस्टर्न इंडिया फिल्म प्रोड्यसर्स एसोसियेशन के सदस्य हैं तथा राजस्थानी फिल्म केसरिया बालम के निर्माण कार्य में व्यस्त हैं।

सम्पर्क – 51 बी, नृसिंह कॉलोनी, रातानाडा, जोधपुर।
दूरभाष –0291 2511919, 94604 25069

Tuesday, January 19, 2010

कर्मयोगी श्री अशोक कन्नौजिया

पश्चिमी राजस्थान के सबसे बड़े वेडिंग फोटोग्राफर की ख्याति प्राप्त है उन्हें

क्या कोई व्यक्ति टेलिविजन पर एक समाचार देखकर अपने भाग्य की लकीरों को बदल सकता है! क्या कोई एक समाचार आदमी को गुमनामी के अंधेरों से निकालकर राष्ट्रव्यापी ख्याति दिलवा सकता है! सुनने में अविश्वसनीय सी लगने वाली यह बात पूरी तरह सत्य सिद्ध करके दिखायी है जोधपुर के श्री अशोक कन्नौजिया ने। श्री अशोक कन्नौजिया का जन्म 12 सितम्बर 1970 को जोधपुर शहर में हुआ। उनके पिता श्री शिवचरण कन्नौजिया रेलवे में सेवा करते हैं। श्री अशोक कन्नौजिया की स्कूली शिक्षा जोधपुर में हुई। वर्ष 1989 में उन्होंने सोमानी कॉलेज से स्नातक उपाधि प्राप्त की।

वर्ष 1991 से वे फोटोग्राफी का कार्य करने लगे। वर्ष 1992 में जब वे 22 वर्ष के थे तब उन्होंने टेलिविजन पर दिल्ली के एक फोटो स्टूडियो का समाचार देखा जिसमें उस स्टूडियो के विजुअल्स भी दिखाये गये थे। इन विजुअल्स में उन्होंने स्टूडियो में फोटो खिंचवाने वालों को कतार लगाकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए देखा। उस समाचार को देखकर श्री अशोक कन्नौजिया ने उसी समय संकल्प किया कि एक दिन वे भी फोटोग्राफी में नाम कमायेंगे तथा ऐसा ही लोकप्रिय फोटो स्टूडियो जोधपुर में स्थापित करेंगे।

संकल्प एक छोटे से विचार के रूप में मन में जन्म अवश्य लेता है किंतु शीघ्र ही वह इतना बड़ा हो जाता है कि संकल्पकर्ता अपने समस्त कार्य छोड़कर उस संकल्प को पूरा करने के लिये उठ खड़ा होता है क्योंकि कोई भी सच्चा संकल्प, कुछ शब्दों में मन ही मन की गयी कोई प्रतिज्ञा मात्र नहीं होता। न ही बिना पंखों के ऊँचे गगन में उड़ने के मिथ्या स्वप्न जैसा होता है। सच्चा संकल्प तो आदमी का अपने आप आपको दिया गया एक वचन होता है। यही कारण है कि सच्चे संकल्प के साथ जुड़े हुए होते हैं प्रयासों के वे अनवरत सिलसले जो आदमी को इस योग्य बनाते हैं कि वह संकल्प को साकार करके दिखा सके। संकल्प आदमी की भूख, प्यास और निद्रा सबकुछ छीन लेते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ श्री अशोक कन्नौजिया के साथ।

श्री अशोक कन्नौजिया ने उसी वर्ष अर्थात् 1992 में मुम्बई जाकर मॉडलिंग फोटोग्राफी के विशेषज्ञ फोटोग्राफरों से इस कार्य का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। उस समय आज की तरह डिजीटल फोटोग्राफी का चलन नहीं था। परम्परागत कैमरों पर हाथ साफ करने के लिये कठोर साधना और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती थी। धुन के धनी अशोक ने कैमरों को अपना साथी बना लिया। वे अपना अधिकतम समय उन्हीं के साथ बिताने लगे। धीरे–धीरे उनकी फोटोग्राफी में वह चमक आ गयी जिसके बल पर वे उत्कृष्ट कहलाने की अपनी साध पूरी कर सकते थे। उनके पिता श्री शिवचरण कन्नौजिया तथा उनके पांच भाइयों ने भी श्री अशोक कन्नौजिया का पूरा साथ दिया और हर समय उनके मनोबल को ऊँचा बनाये रखा। इसी बीच उन्हें श्री शैलेन्द्र थानवी का साथ मिला जिन्होंने श्री अशोक कन्नौजिया को फोटोग्राफी के क्षेत्र में सफल होने के लिये अच्छे सुझाव दिये तथा प्रेरणा प्रदान की।

वर्ष 1996 में श्री कन्नौजिया ने अपने आप को पूरी तरह उत्कृष्ट फोटोग्राफी के लिये तैयार कर लिया तथा 25 अप्रेल 1996 को रातानाडा शिवमंदिर रोड पर जोधपुर में एक छोटा सा स्टूडियो स्थापित किया। वर्ष 1997–98 में उन्होंने जोधपुर में मॉडलिंग प्रपोजल फोटोग्राफी में पूरे राजस्थान में प्रसिद्धि प्राप्त की और अपने स्टूडियो के आगे ग्राहकों की कतार लगाकर अपना वह स्वप्न पूरा कर लिया जिसमें उन्होंने ऐसा फोटो स्टूडियो स्थापित करने का विचार संजोया था जिसमें फोटो खिंचवाने के लिये ग्राहकों की कतार लगे। अब उनकी ख्याति जोधपुर से बाहर निकलकर दूसरे शहरों में फैल गयी और वे पश्चिमी राजस्थान के प्रमुख फोटो ग्राफरों में गिने जाने लगे। छोटी पूंजी के साथ आरंभ किये गये इस व्यवसाय को उन्होंने इतने कम समय में बुलंदियों पर पहुंचाने में सफलता अर्जित की कि आज वे पूरी तरह से आधुनिक स्टूडियो के मालिक हैं।

वर्ष 2004 में उन्होंने सरदारपुरा में संजय स्टूडियो के नाम से भव्य एवं आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित स्टूडियो की स्थापना की। वर्ष 2005 में उन्होंने अपना कलर लैब स्थापित किया जिसमें वल्र्ड क्लास मशीन की स्थापना की। आज वे जोधपुर में वैडिंग फोटोग्राफी विशेषज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा भारत के गिने चुने वेडिंग फोटोग्राफरों में शुमार होते हैं। वे दिल्ली, मुंबई तथा देश के अन्य बड़े शहरों में भी वैडिंग फोटोग्राफी करने जाते हैं।

श्री अशोक कन्नौजिया की सफलता का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय से एम. बी. ए. करने वाले छात्र–छात्राएं हर वर्ष उनके स्टूडियो पर आकर उनकी व्यावसायिक सफलता के कारणों का अध्ययन करते हैं तथा उस पर प्रोजैक्ट तैयार करके अपनी वार्षिक परीक्षाओं में प्रस्तुत करते हैं।

फोटोग्राफी के व्यवसाय के साथ–साथ श्री अशोक कन्नौजिया समाज सेवा के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। भविष्य के लिये श्री अशोक कन्नौजिया की योजना है कि वे हिन्दी फिल्मों के निर्देशन के क्षेत्र में हाथ आजमायें। वे महेश भ तथा मधुर भण्डारकर की तरह ही इस लाइन में सफल होने की इच्छा रखते हैं। उन्होंने हिन्दी म्यूजिक एलबम ‘‘प्यार में’’ निर्देशित किया है जिसे अच्छी लोकप्रियता मिली। धुन के धनी श्री अशोक कन्नौजिया को इस क्षेत्र में सफलता के कई नये झण्डे गाढ़ने हैं।

सम्पर्क – 312, सैक्शन 7, न्यू पावर हाउस रोड, जोधपुर
दूरभाष – 94141 27682, 0291 5109390